पी. चिदंबरम
“हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रक्रिया सजा बन गई है। हड़बड़ी में बिना सोचे-समझे अंधाधुंध गिरफ्तारियों से लेकर जमानत लेने तक के लिए विचाराधीन मामलों में लंबे समय तक कैद रखने की जो प्रक्रिया है, उस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है… यह बेहद गंभीर बात है कि देश में छह लाख दस हजार कैदियों में से अस्सी प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं… अब उस प्रक्रिया पर सवाल उठाने का वक्त आ चुका है, जिसकी वजह से बिना मुकदमे के लोगों को इस तरह लंबे समय तक कैद में रखा जा रहा है।’’- एनवी रमण, भारत के प्रधान न्यायाधीश
ऐसे समझदारी भरे शब्द नहीं बोले गए हैं, निश्चित रूप से हाल के वर्षों में तो देश के किसी शीर्ष जज ने ऐसा नहीं ही कहा है। न्यायमूर्ति रमण ने सत्रह साल वकालत की है और बाइस साल से जज हैं। आपराधिक न्याय प्रणाली में न्याय के नाम पर अदालतों में क्या होता है, वे इससे अनजान नहीं हैं। वे आरोपियों के परिवार वालों, वकीलों, नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और संबंधित नागरिकों से भी मिले होंगे और सैकड़ों दर्दनाक किस्से सुने होंगे। इस लेख का उद्देश्य आपके साथ ऐसे ही कुछ किस्से साझा करना है।
बिना मुकदमा जेल में
इस वक्त उन सोलह आरोपियों से ज्यादा सदमा पहुंचाने वाली कोई कहानी नहीं है, जिसे भीमा कोरेगांव मामले के रूप में जाना जाता है। एक जनवरी 2018 को, जैसा कि उस दिन हर साल होता है, भीमा कोरेगांव में कुछ लोग (दलित समुदायों के कुछ सदस्य) इस गांव के संघर्ष की दो सौवीं जयंती मनाने के लिए जमा हुए थे।
इसमें भीड़ ने हिंसा और पत्थरबाजी की, जैसा कि आरोप है कि उसे दक्षिणपंथी समूहों ने उकसाया था। इसमें एक व्यक्ति मारा गया और पांच जख्मी हुए थे। राज्य सरकार (भाजपा) ने जो जांच करवाई, उसने अजीब मोड़ ले लिया। 6 जनवरी 2018 को पांच लोगों को राज्य पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
ये सभी दलित समुदाय से सहानुभूति रखने वाले और वामपंथी थे। अगले महीनों में और गिरफ्तारियां हुईं। गिरफ्तार किए गए लोगों में एक वकील, एक कवि, एक पादरी, लेखक, प्रोफेसर और मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल थे। 2019 में चुनाव के बाद गठबंधन सरकार (गैर-भाजपा) सत्ता में आई।
पक्षपात पूर्ण जांच के आरोपों पर संज्ञान लेते हुए सरकार ने इस मामले की फिर से जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआइटी) बना दिया। दो दिन के भीतर ही केंद्र सरकार (भाजपा) ने दखल दिया और मामले को राष्ट्रीय जांच एजंसी (एनआइए) को सौंप दिया!
कई याचिकाओं के बावजूद आरोपियों को जमानत देने से इनकार कर दिया गया। चौरासी वर्षीय पादरी फादर स्टेन स्वामी की 5 जुलाई, 2021 को जेल में मौत हो गई। बयासी साल के मशहूर कवि वरवर राव को 22 सितंबर, 2021 को चिकित्सीय आधार पर अंतरिम जमानत दी गई।
जेएनयू के पीएचडी छात्र शरजील इमाम को दो भाषण देने के मामले में गिरफ्तार किया गया था। शरजील ने ये भाषण दिसंबर 2019 में सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में दिए थे। दिल्ली में मामले के अलावा वह असम, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में भी आरोपों का सामना कर रहा है। 28 जनवरी, 2020 से वह जेल में है और उसे जमानत देने से इनकार कर दिया गया है।
जेएनयू के पूर्व छात्र और कार्यकर्ता उमर खालिद को फरवरी 2020 के दंगों के मामले में 14 सितंबर 2020 को गिरफ्तार किया गया था। उसे भी जमानत नहीं दी गई है। केरल के मशहूर पत्रकार कप्पन सिद्धीकी को उस वक्त गिरफ्तार किया गया था, जब वे उत्तर प्रदेश में हाथरस कांड की खबर करने जा रहे थे। वे भी 5 अक्तूबर 2020 से जेल में बंद हैं और उन्हें भी जमानत नहीं मिली है।
कानून क्या है?
इस लेख का आशय यह नहीं है कि आरोप झूठे हैं या सही। मुद्दा यह है कि आरोपियों को जमानत क्यों नहीं दी जा रही है? जांच के दौरान आरोपी पूर्व-विचाराधीन होते हैं, जब अदालत उन पर आरोप तय कर देती है तो वे विचाराधीन कैदी हो जाते हैं। आरोप-पूर्व साक्ष्य, आरोप निरूपित करना, सुनवाई और बहस में तो सालों लग सकते हैं, बल्कि लगेंगे ही।
जब तक सुनवाई पूरी न हो जाए, तब तक आरोपी को क्या जेल में रखा जाना चाहिए? क्या सुनवाई के पहले जेल में रखना सुनवाई, साक्ष्य, दोषसिद्धि और सजा का विकल्प है? क्या देश का कानून यही है? अगर वास्तव में देश का कानून यही है तो क्या ऐसे कानून की दोबारा व्याख्या या ऐसे कानून में संशोधन नहीं होना चाहिए?
नयायमूर्ति रमण के नाराजगी भरे बयान में कई सवाल मौजूद हैं। इनका जवाब सुप्रीम कोर्ट के निर्धारित कानून में देखा जा सकता है। चालीस साल पहले गुरबख्श सिंह सिब्बिया मामले (1980) में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘आपराधिक दंड संहिता की कई धाराओं से सिद्धांत रूप में यह निष्कर्ष निकलता है कि जमानत देना नियम है और इससे इनकार करना अपवाद’।
वर्ष 2014 में अरनेश कुमार मामले में अदालत ने कहा था कि गिरफ्तार करने की शक्ति के अधिकार को कुल मिलाकर उत्पीड़न, दमन के एक हथियार के रूप में देखा जाता है और निश्चित रूप से इसे जनता के प्रति दोस्ताना रूप में नहीं देखा जाता।
29 जनवरी, 2020 को एक अन्य संविधान पीठ ने सुशीला अग्रवाल मामले में उन सारे भ्रमों जो गुरबख्श सिंह सिब्बिया और अरनेश कुमार मामले से उपजे थे, को दूर करते हुए आजादी के अधिकार को बनाए रखने के लिए अदालत की शक्तियों और उनके कर्तव्यों की पुनर्पुष्टि की थी।
पीठ ने कहा था- अपने आप को यह याद दिलाना लाभदायक होगा कि नागरिक जिन अधिकारों को गहराई से अनुभव करते हैं, वे मौलिक अधिकार हैं, न कि प्रतिबंध मौलिक अधिकार हैं।
काला धब्बा
इसके बावजूद गिरफ्तारी के अधिकार का खुल कर दुरुपयोग हो रहा है। सतर्क सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कई सारे फैसले दिए हैं, जो गिरफ्तार करने के अधिकार को कम करते हैं। 11 जुलाई 2022 को सतेंदर कुमार मामले में निर्णायक बयान देकर इसका समापन कर दिया और 20 जुलाई, 2022 को मोहम्मद जुबैर मामले में आए धमाकेदार आदेश ने भी इस पर सब साफ कर दिया।
आपराधिक न्याय व्यवस्था पर दुखद टिप्पणी यही है कि इन सारे फैसलों के बावजूद भीमा कोरेगांव मामले के आरोपी, शरजील इमाम, उमर खालिद, सिद्दीकी कप्पन और ऐसे ही हजारों लोग बिना दोष सिद्धि के जेल में बंद हैं। मेरा मानना है कि इसीलिए न्यायमूर्ति रमण बोले।