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एक नजरिया: हिंदू- मुस्लिम को एक साथ ला सकने वाला ही मोदी को चुनौती दे सकता है

RK News by RK News
July 31, 2022
Reading Time: 1 min read
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एक नजरिया: हिंदू- मुस्लिम को एक साथ ला सकने वाला ही मोदी को चुनौती दे सकता है

शेखर गुप्ता

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हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर तीन हिस्सों में बंटे इस स्तंभ के दूसरे हिस्से में धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के पुराने द्वंद्व की नयी परिभाषाओं, और आगे के रास्ते का जिक्र करते हुए हमने एक सवाल उठाया था. वह यह कि धर्म ने जिसे बांट दिया उसे राजनीति जोड़ सकती है क्या?

यह सवाल हमारे इस केंद्रीय तर्क में से उभरा कि 1989 के बाद से जब एक राजनीतिक ताकत के रूप में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व राज्यों में कमजोर पड़ गया तब से भारतीय राजनीति में सत्ता की अदलाबदली दो प्रतियोगी विचारों के बीच होती रही है. इनमें से एक विचार यह कि धर्म ने जिसे जोड़ दिया था उसे बांटने के लिए आप जाति का इस्तेमाल कर सकते हैं; दूसरा विचार यह कि जाति ने जिसे बांट दिया है उसे धर्म जोड़ सकता है.

करीब 25 वर्षों तक जाति का वर्चस्व रहा. लेकिन 2014 में, हमारे प्रमुख बड़े राज्यों में हिंदू वोटों के लिए जंग धर्म ने जीत ली. तमाम दूसरे विवाद और विमर्श इसी में से उभरे हैं— चाहे वे मथुरा-काशी के हों, ईशनिंदा के हों, कांवड़िया बनाम हाजी के हों, या धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के हों.

नरेंद्र मोदी को इस तथ्य की चालाकी भरी समझ है. इसलिए, गौर कीजिए कि किस तरह वे अपने सैद्धांतिक प्रतिद्वंद्वियों को जाल में फंसाने के लिए अपनी भाजपा का आह्वान कर रहे हैं कि वह भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों (यानी मुसलमानों) के अंदर पिछड़े वर्गों/जातियों के बीच अपना विस्तार करे. मोदी जानते हैं कि अगर उनके विरोधियों ने 25 वर्षों तक हिंदू वोटों में फूट पैदा करने के लिए जाति का इस्तेमाल किया, तो क्या वे इसी तरह मुसलमानों को बांटने के लिए जाति का इस्तेमाल नहीं कर सकते? प्रतिद्वंद्वी की चाल से उसी को मात देने की कला, ‘जुजुत्सू’ का प्रयोग तो अखाड़े में उतरे दोनों प्रतिद्वंद्वी कर सकते हैं.

हाल में, हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी ने हवा का रुख भांपने के लिए जो बैलून उड़ाया उस पर पहली ‘सेकुलर’ प्रतिक्रिया यही रही होगी— ‘आपके लिए कोई चांस नहीं है!’ मोदी जी को शुभकामनाएं अगर वे यह सोचते हैं कि मुसलमानों को दिन में 10 बार यह याद दिलाकर वे उनके वोट खींच लेंगे कि वे पसमांदा (पिछड़े) हैं और दबंग अशरफ उनका उसी तरह शोषण कर रहे हैं जिस तरह हिंदुओं में ऊंची जातियां निचली जातियों का शोषण करती हैं.

थोड़े समय के लिए सेकुलरवादियों की यह सोच सही हो सकती है लेकिन जातिवाद और उसके आधार पर सामाजिक भेदभाव इसके भुक्तभोगियों के अंदर उग्र प्रतिक्रिया पैदा करता है. किसी समय इस आह्वान पर अनुकूल जवाब भी मिल सकता है. भाजपा तो लंबे खेल खेलती रही है.

हाल के किसी लोकसभा या विधानसभा चुनाव में उसने किसी मुस्लिम उम्मीदवार को— कम-से-कम किसी मजबूत उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया. लेकिन गौर कीजिए कि उसने मध्य प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनाव में कितनी बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा किया. इस बारे में ‘दप्रिंट’ के शंकर अर्निमेष की रिपोर्ट देखिए, जो बताती है कि वहां भाजपा के 92, जी हां 92, मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं. वार्डों की बड़ी संख्या उनकी है जिनमें उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवारों को हराया.

अगर आप मोदी-शाह की भाजपा के विरोधी, उससे प्रताड़ित, या उसके भावी प्रतिद्वंद्वी हैं तो इन बातों की अनदेखी करके अपना ही नुकसान कर सकते हैं. आप इसे इस तरह देख सकते हैं. लोकसभा समेत दूसरे महत्वपूर्ण चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देना भाजपा के लिए अच्छा विचार हो सकता है अगर हिंदू वोटों पर उसकी पकड़ को कोई चुनौती नहीं मिलती. तब तो उसके दोनों हाथों में लड्डू होंगे.

एक तो वह प्रतीकात्मक और संख्याबल के लिहाज से भी इस आरोप का खंडन कर सकेगी कि वह मुस्लिम-मुक्त है, जो कि आज का सच है. दूसरे, मुस्लिम वोट का छोटा हिस्सा भी अगर उसकी ओर मुड़ जाता है, तो वह विपक्ष को कहीं और हराई में दफन कर देगी.

मोदी के विरोधी इस चुनौती का सामना करने से बच नहीं सकते. अगर वे मुस्लिम वोटरों की बाड़बंदी करते हैं तो मोदी का हिंदू आधार और मजबूत होगा. कहा जाएगा कि देखिए, ये लोग सेकुलर होने का दावा करते हैं मगर इन्हें सिर्फ अपने मुस्लिम वोट बैंक की चिंता है. और अगर वे इसकी चिंता नहीं करते, तो मुस्लिम वोटों के भी छिटकने का खतरा है. इसीलिए हमने इसे मोदी के द्वारा बिछाया जाल कहा था.

इसके अलावा, कांग्रेस और कई राज्यों में फैली पार्टियां अगर इससे परहेज भी करती हों, मगर नयी मुस्लिम पार्टियां, असदुद्दीन ओवैसी, बदरुद्दीन अजमल—दूसरे राज्यों में उभरने वाली ऐसी और पार्टियां—इससे परहेज नहीं करेंगी. इसकी वजह यह है कि वे केवल मुस्लिम वोट की ही उम्मीद कर सकती हैं. और यह इन वोटों के मूल दावेदारों कांग्रेस, एनसीपी, सपा, राजद या क्या पता कभी टीएमसी से भी इन्हें अपनी ओर खींचने का मौका बन सकता है.

मुस्लिम वोटों का यह बिखराव केवल एक राजनीतिक ताकत, भाजपा को ही फायदा पहुंचाएगा. ऐसा भी समय आ सकता है जब केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को यह चिंता सताने लगे कि हैदराबाद में उभरा नया प्रतिद्वंद्वी वहां न कदम रख दे, जबकि वह खुद यूडीएफ गठबंधन के अनुशासन से बंधी है और कांग्रेस पार्टी की ओर से यह डर बढ़ रहा है कि उसे मुस्लिम समर्थक के रूप में देखा जा रहा है. गौर कीजिए कि तीन तलाक और हिजाब के मुद्दों पर उसकी प्रतिक्रिया क्या रही. इसकी पुनरावृत्ति आपको तब भी दिखेगी जब मोदी सरकार बहुविवाह, तलाक़शुदा को हर्जाना, अल्पसंख्यकों की संस्थाओं को विशेष दर्जा देने, मदरसों में पढ़ाई आदि मुस्लिम मसलों पर कदम उठाएगी. ये कदम उठाए ही जाने वाले हैं. कांग्रेस की इन पर क्या प्रतिक्रिया होगी?

उसकी वैचारिक उलझन केरल में सबरीमला मसले पर दिखी. केरल चंद उन राज्यों में शामिल है जहां उसे अभी भी भाजपा का सामना नहीं करना पड़ता है इसलिए उसके लिए मौका है. उसकी उलझन यह है कि वह उदारवादी एवं सेकुलर झंडा उठाकर हिंदुओं को नाराज करने का जोखिम उठाए, या पुरानी परंपरा का समर्थन करे. उसने सबसे बुरा विकल्प चुना— कुछ मत कहो, कुछ मत करो. राहुल गांधी ने इस मसले में एक बार स्वाभाविक रूप से स्त्री-पुरुष समानता की बात की, तो तमाम कांग्रेसी इधर-उधर देखने लगे और इसे पार्टी की नहीं बल्कि उनकी निजी राय बताने लगे.

मोदी ने अपने वैचारिक विरोधियों को धकेलकर ऐसे द्वीप पर पहुंचा दिया है, जो राजनीतिक जलवायु में परिवर्तन के चलते पानी के ऊपर उठते स्तर के कारण तेजी से सिकुड़ता जा रहा है. भारत के मुसलमान भी उनके साथ वहां खींच लिये गए हैं.

पिछले तीन सप्ताह से, ईशनिंदा-नूपुर शर्मा-मोहम्मद जुबेर प्रकरणों से प्रेरित होकर शुरू किए गए इस सीरीज़ और इस लेख के लिए मैंने इस मसले पर सेकुलर खेमे के कुछ सबसे ज्ञानी व्यक्तियों से बात की. उनसे सवाल किए, अब आगे क्या? इस राजनीतिक आधार के लिए आप लोग मोदी से कैसे लड़ेंगे?

अगर मैं यह बताऊं कि कितनों और किस-किस ने यह कहा कि लड़ने का कोई फायदा नहीं है, तो आप आश्चर्य करेंगे. उनका मानना है कि धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र का विचार खत्म हो चुका है. जब ‘हिंदू बहुमत कट्टरपंथी हो गया है’ तो आप कैसे लड़ेंगे? कुछ युवा तो इतने नाराज और नाउम्मीद हैं कि वे कह रहे हैं कि एकमात्र रास्ता अमेरिका, यूरोप, यहां तक कि तुर्की के लिए हवाई जहाज पर सवार होना ही है. कुछ लोगों के लिए ये ही पसंदीदा मुकाम हैं. कुछ लोगों ने कहा कि मोदी के समर्थकों को एक दिन एहसास होगा और वे पछतावे से भरकर उन्हें वोट देंगे. रणनीति के लिहाज से यह एक खामखयाली ही मानी जाएगी.

ऐसे भी लोग हैं जो न तो ग्रीन कार्ड चाहते हैं और न अपनी ताकत से लड़ना चाहते हैं. वे हैदराबाद वाले भाषण का हवाला देते हैं कि देखिए, मोदी अब मुसलमानों की ओर हाथ बढ़ा रहे हैं, और उन्हें मालूम है कि अगर वे इतिहास में अपनी जगह बनाना चाहते हैं तो उन्हें कामयाब होने के लिए सामाजिक एकता बनाने की जरूरत होगी. इसलिए उन्हें मुसलमानों के लिए इजराइल-अरब शैली में जगह बनाने दीजिए और उम्मीद कीजिए कि सब अच्छा होगा.

यह पराजय भाव एक अहम तथ्य के विपरीत है. राजनीति चाहे भारत को जिधर ले जाए, वह चुनावी लोकतंत्र बना रहेगा. कभी लग सकता है कि यह अधिनायकवादी है, कभी पुरातनपंथी लग सकता है. लेकिन खेल कुल मिलकर इस संविधान के दायरे में खेला जाएगा.

यह विचारों और विचारधाराओं के लिए एक खुला मैदान बना रहेगा जिन्हें मजबूत, महत्वाकांक्षी और कल्पनाशील दिमाग प्रतियोगी राजनीति के जरिए चुनौती देते रहेंगे. सीधी भिड़ंत वाला खेल भी कुछ नियमों के तहत ही खेला जाता है. भारत कभी हमेशा के लिए एकदलीय शासन वाला देश नहीं बनेगा, जो चीनी कयुनिस्ट पार्टी के कब्जे वाले चीन के हिंदू संस्करण जैसा हो. हमारी राजनीति में कई ऐसे लोग हैं और रहेंगे, जो भारत के चीनीकरण के विचार से नफरत करते हैं.

2014 के बाद के भारत में भाजपा को कोई भी तब तक नहीं हरा सकता जब तक हिंदुओं का अच्छा-खासा हिस्सा उसे वोट नहीं देता. आदिवासी, दलित, यादव, या ओबीसी के रूप में वोट देने का दौर खत्म हुआ. मोदी को वही चुनौती दे सकता है जो हिंदुओं और मुसलमानों को एक बार फिर साथ ला सके. हिंदुओं को हिंदू के रूप में, न कि बिखरे जातीय समूहों के रूप में.

उसे हिंदुओं को यह समझाना पड़ेगा कि हमारे संविधान में जिस सामाजिक एकता की बात कही गई है वह उनके लिए भी और पूरे देश के लिए भी सबसे अच्छी बात है; कि हमवतनों से ‘परायापन’ न केवल सस्ती, हिंदू विरोधी बात है बल्कि राष्ट्रहित के लिए भी नुकसानदायक है. लेकिन यह सब समझा पाना आसान नहीं है. वैसे भी सत्ता के लिए जद्दोजहद कभी आसान नहीं रही.

यह लेखक के निजी विचार है

आभार: द प्रिंट

 

 

 

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