कांग्रेस छोड़ने के 8 महीने बाद जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और कद्दावर कांग्रेसी रहे गुलाम नबी आजाद फिर चर्चा में है. वजह है- उनकी हाल ही में प्रकाशित आत्मकथा आजाद. गुलाम नबी ने आत्मकथा के विमोचन पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी पर जमकर हमला बोला, जो मीडिया की सुर्खियां भी बनी.
30 साल तक कांग्रेस में महासचिव, केंद्र में मंत्री और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे गुलाम नबी आजाद का चुनावी परफॉर्मेंस अच्छा नहीं रहा है. इस पर एबीपी की एक रिपोर्ट आई है जिसमें उनके परफारमेंस का जायजा लिया है, उस पर एक नजर डालते हैं
*जहां मिली कमान, वहां कांग्रेस साफ
आजाद ने जिन राज्यों के लिए काम किया, वहां कांग्रेस साफ हो गई. इसे उदाहरण और तथ्यों से समझते हैं…
1. 1987 में इलाहाबाद के उपचुनाव में गुलाम नबी आजाद को पहली बार प्रभारी बनाया गया. एनडी तिवारी की सत्ता होने के बावजूद कांग्रेस यहां बुरी तरह हारी. यह हार कांग्रेस के लिए बाद में बहुत ही बुरा साबित हुआ. 1989 के चुनाव में कांग्रेस यूपी में हार गई. एनडी तिवारी के कई मंत्री विधानसभा नहीं पहुंच पाए.
राम मंदिर मामले में बुरी तरह घिरी कांग्रेस ने उस वक्त आजाद का प्रमोशन एक मुस्लिम चेहरे के तौर पर की थी, लेकिन आजाद यूपी में मुसलमानों के वोट लाने में असफल रहे. प्रभारी होने के बावजूद कांग्रेस को ठोस समीकरण के सहारे जीत नहीं दिला पाए.
2. 2001 में सोनिया गांधी ने गुलाम नबी को तमिलनाडु का प्रभार सौंपा. गुलाम नबी ने कांग्रेस का गठबंधन जे जयललिता की पार्टी के साथ करने का फैसला किया. समझौते के तहत कांग्रेस सिर्फ 14 सीटों पर चुनाव लड़ी, जिसमें से 7 जीती. चुनाव के बाद तमिलनाडु में जयललिता की सरकार बनी, लेकिन मंत्रिमंडल में कांग्रेस को शामिल नहीं किया गया.
कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने गुलाम नबी आजाद का खूब विरोध किया, जिसके बाद पार्टी ने जयललिता से गठबंधन तोड़ने का फैसला लिया.
3. 2002 में गुलाम नबी को फिर से यूपी का महासचिव बनाया गया. आजाद के रणनीति यहां इस बार भी काम नहीं आई और कांग्रेस को काफी नुकसान हुआ. कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी बनकर रह गई.
2002 के चुनाव में कांग्रेस को 8 सीटों का नुकसान हुआ और सिर्फ 25 सीटें जीत पाई. केंद्र में मजबूती के साथ उभर रही कांग्रेस के लिए यह बड़ा झटका था.
4. 2008 में कर्नाटक विधानसभा हारने के बाद 2009 में कांग्रेस ने गुलाम नबी को कर्नाटक का प्रभारी महासचिव बनाकर बेंगलुरु भेजा. मकसद- लोकसभा में बेहतरीन परफॉर्मेंस था. आजाद महासचिव बनने के बाद कर्नाटक में कई प्रयोग किए, लेकिन असफल रहे.
5. 2009 में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन सीएम वाईएस रेड्डी के निधन के बाद कांग्रेस वहां स्थिति संभालने के लिए गुलाम नबी को तैनात किया. शुरू हाईकमान से रजामंदी लेकर आजाद ने के रोसैया को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन जब वाईएसआर के बेटे जगन मोहन रेड्डी ने बगावत कर दी तो उनका मुकाबला करने के लिए किरण रेड्डी को उतार दिया.
कांग्रेस के इस फैसले का विरोध करते हुए जगनमोहन ने इस्तीफा दे दिया. कांग्रेस इसके बाद आंध्र प्रदेश में चुनाव नहीं जीत पाई. हाल में किरण रेड्डी ने भी बीजेपी ज्वाइन कर लिया है.
6. 2016 में गुलाम नबी को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया. कमान मिलते ही नबी अखिलेश यादव की पार्टी सपा से गठबंधन कर चुनाव लड़ने की रणनीति पर काम करने लगे. गठबंधन के तहत सपा से कांग्रेस को 100 सीटें भी मिली, लेकिन कांग्रेस जीत नहीं पाई.
2012 में कांग्रेस को 28 सीटें मिली थी, लेकिन 2017 में यह 7 पर पहुंच गया. इसके बाद गुलाम नबी को पार्टी हरियाणा भेज दिया. 2019 में कांग्रेस को हरियाणा में भी हार हुई.
7. 2014 में कांग्रेस ने गुलाम नबी को राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया. चूंकि लोकसभा में पार्टी के पास संख्या बल नहीं था, इसलिए राज्यसभा का नेता प्रतिपक्ष महत्वपूर्ण पद था. 2019 में जब अनुच्छेद 370 हटाने का ऐलान हुआ तो गुलाम नबी फ्लोर मैनेज करने में असफल रहे.
कांग्रेस के तत्कालीन चीफ व्हिप भुवनेश्वर कलीता ने पद से इस्तीफा दे दिया, जिस वजह से पार्टी व्हिप नहीं जारी कर पाई. गुलाम नबी के रहते सदन में ऐसे कई मौके आए, जब पार्टी की किरकिरी हुई.