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काफिर, उम्मह, और जिहाद को त्यागें, संघ के नेता राम माधव का मुसलमानों के लिए” समावेशिता फार्मूला”

RK News by RK News
June 8, 2022
Reading Time: 1 min read
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काफिर, उम्मह, और जिहाद को त्यागें, संघ के नेता राम माधव का मुसलमानों के लिए” समावेशिता फार्मूला”

नई दिल्ली: काफिर (नास्तिक), उम्माह (धर्म से बंधा हुआ एक राष्ट्रोपरि समुदाय) और जिहाद (‘संघर्ष’ जिसे अकसर धर्म युद्ध के अर्थों में इस्तेमाल किया जाता है)- ये तीन अवधारणाएं मुसलमानों के भारतीय समाज में समावेश की राह में बाधा बनी हुई हैं- ऐसा कहना है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पदाधिकारी राम माधव का।

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माधव ने दिप्रिंट के साथ इंटरव्यू में कहा कि एक बार मुसलमान ‘स्वीकार’ कर लें कि उनकी जड़ें देश में इस्लामिक हमले से पहले की हैं और इस्लाम के ‘मूर्तिभंजक’ मध्यकालीन इतिहास को त्याग दें तो हिंदू भी ‘सैकड़ों साल पहले हुई तबाही’ के बारे में बात करना छोड़ देंगे।

आरएसएस पदाधिकारी ने कहा कि हालांकि पीएम के पैकेज में लौटने वाले पंडितों के लिए रोजगार मुहैया कराने की बात कही गई ‘लेकिन सुरक्षा कहां है?’

आरएसएस नेता ने कहा कि कश्मीर से जुड़ी बातचीत में स्थानीय हितधारकों को शामिल किया जाना चाहिए, जब हत्याएं हो रही हैं तो ऐसे में संपर्क करने के लिए कोई राजनीतिक नेतृत्व नहीं है, वो सब निष्क्रिय बैठे हैं, हमें उन्हें फिर से सक्रिय करने की ज़रूरत है।

आरएसएस नेता ने कह कि ज्ञानवापी हम सब के लिए एक बहुत अच्छा मौका दे रही है, राम जन्मभूमि के मामले मे हम एक साथ आकर किसी स्वीकार्य समझौते पर नहीं पहुंच सके, हमने उसे अदालत पर छोड़ दिया है, ज्ञानवापी, काशी विश्वनाथ और मथुरा बहुत महत्वपूर्ण मामले हैं, 1990 में हम एक साथ आकर बाबरी मस्जिद मसले को सुलझा सकते थे लेकिन हम एक साथ नहीं आ सके और एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना (6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस) हो गई।

माधव ने कहा कि भागवत जी मौजूदा मसले को लेकर बहुत स्पष्ट थे, न तो आरएसएस और न ही उससे संबद्ध किसी संस्था ने ज्ञानवापी मामले में कोई मांग उठाई है बल्कि ये मांग लोगों की ओर से आई है, अब ये कोर्ट के सामने लंबित है और हो सकता है न्यायपालिका में एक और दशक लग जाए, क्या हम एक साथ आकर इसे हल कर सकते हैं? लेकिन एक साथ आने के लिए मुसलमानों को स्वीकार करना होगा कि ये सब मध्यकालीन इस्लामिक आक्रमण के दौरान हुआ था, हमें एक दूसरे की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करना होगा, एक बार वो हो जाए तो हिंदुओं को पुराने मुद्दों को खोदकर निकालने की जरूरत नहीं होगी और उन्हें हर मस्जिद में कोई शिवलिंग भी नहीं देखना पड़ेगा।

उन्होंने कहा कि मुसलमानों को तीन चीजों को त्यागना होगा और उनमें सबसे अहम है गैर-मुस्लिमों को काफिर कहकर बुलाना।

इस्लाम के पांच स्तंभ हैं- धर्म के प्रति निष्ठा, दिन में पांच बार नमाज, जकात (लोगों के कल्याण के लिए दान), रमजान के महीने में रोजे और हज, इनका पालन कीजिए, इस देश में कोई आपको (मुसलमानों) नहीं रोकेगा, तीन दूसरी चीजें हैं जो राष्ट्रीय समाज में समावेशिता के बड़े मुद्दे की राह में आड़े आती हैं।

माधव ने कहा कि उम्माह की अवधारणा जिसका मतलब है, ‘हम एक अलग राष्ट्र हैं, क्योंकि हम मुसलमान हैं, उन्हें इसे छोड़ना होगा, उन्हें काफिर की पूरी अवधारणा में विश्वास छोड़ना होगा, उनके अनुसार गैर-मुस्लिम काफिर या पापी हैं, रोजमर्रा की भाषा में कोई काफिर नहीं है, उन्हें इसका इस्तेमाल बंद करना होगा और फिर उन्हें अपने जिहाद के रास्ते को भी छोड़ना होगा।

अगर ये जिहाद है तो वो अंदरूनी जिहाद होना चाहिए, बहुत से मुस्लिम विद्वान कहते हैं कि ‘जिहाद अंदरूनी होना चाहिए’. जिहाद का मतलब ये नहीं है कि आप दूसरे धर्मों के लोगों को मार दें।

माधव ने कहा कि भारतीय मुसलमानों को ये ‘समझना और स्वीकार’ करना होगा कि वो इस जमीन का हिस्सा हैं और उन्हें इस्लामिक आक्रांताओं के ‘गलत कामों’ की निंदा करनी होगी।

माधव ने कहा कि इस्लाम आक्रांताओं के जरिए आया, मूर्तिभंजन मध्यकालीन इस्लाम का एक आवश्यक अंग था, उन्होंने न केवल भारत में हिंदुओं के साथ ऐसा किया बल्कि यूरोप में ईसाइयों और इजराइल में यहूदियों के साथ भी ऐसा ही किया, भारतीय मुसलमानों के पूर्वज शायद मुसलमान भी नहीं थे।

उन्होंने बाद में धर्मांतरण किया होगा लेकिन इस्लामिक इतिहास का वो हिस्सा उनकी गरदन में एलबेट्रॉस की तरह पड़ा रहा, भारतीय मुसलमानों को समझना होगा कि उन्हें इसे (इतिहास को) ढोने की जरूरत नहीं है।

उन्होंने कहा कि इंडोनेशियाई लोगों ने एक मंदिर परिसर का निर्माण कराया था और यहां मुसलमान इतिहास पर बहस कर रहे हैं, भारतीय मुसलमानों को आगे आकर आक्रांताओं के मध्यकालीन मूर्तिभंजन को स्वीकार करना चाहिए,जिस दिन ऐसा हो जाएगा, हमारी आधी समस्याएं हल हो जाएंगी।

मैं एक तुलना करता हूं, हमारे यहां ईसाइयों की एक बड़ी संख्या है, ईसाइयत अंग्रेजों के साथ आई और उसे एंग्लो संस्कृति कहा जाता है, लेकिन क्या ईसाई लोग खुद को अंग्रेजों से जोड़ते हैं? क्या वो ब्रिटिश विरासत को अपनाने पर जोर देते हैं? नहीं, वो ऐसा नहीं करते, धर्म जारी रहता है लेकिन कोई अंग्रेजों के कार्यों का समर्थन नहीं करता।

उन्होंने कहा कि मुसलमानों के साथ ऐसा क्यों नहीं होता? वो खड़े होकर क्यों नहीं कहते कि वो हमलों के इस इतिहास का समर्थन नहीं करते? एक बार ये हो जाए, तो जैसा भागवत जी ने सही कहा है, हिंदू भी उस विनाश के बारे में बात करना बंद कर देंगे जो सैकड़ों वर्षों पहले हुए हुआ था, लेकिन वो अपेक्षा करते हैं कि हिंदू ख़ामोश बने रहेंगे, उनके अंदर कोई धार्मिक भावना नहीं जगेगी, और वो खुद के इस्लाम के मूर्तिभंजक इतिहास के साथ जोड़ते रहेंगे, उन्होंने आगे कहा कि इस तरह से सामंजस्य प्राप्त करना बहुत मुश्किल है।

माधव ने कहा कि हिंदुओं ने अब अपनी सभ्यता पर गर्व करना शुरू कर दिया है, यही कारण है कि राहुल गांधी और ममता जैसे राजनेता अपनी हिंदू पहचान पर फिर से ज़ोर दे रहे हैं. एक बड़ी संख्या में हिंदू अपने अधिकारों के लिए खड़े हो रहे हैं, ये कोई प्रतिशोध नहीं है बल्कि एक बड़े सवाल को लेकर है. क्या हम उसी समाज का हिस्सा हैं, या क्या हम में से कुछ ख़ुद को ब्रिटिश लोगों से जोड़ते हैं, या मुग़लों से जोड़ते हैं? क्या हमें इसी तरह से रहना चाहिए?

उन्होंने कहा कि हम भी समरसता में रह सकते हैं, यही कारण है कि भागवत जी एक साथ बैठकर बातचीत शुरू करने पर इतना जोर दे रहे थे, वो किसी राजनीतिक दलों या सरकार के जरिए नहीं होगा. उसकी पहल हमें करनी होगी, लेकिन उससे पहले शर्त ये है कि मुसलमानों को ये स्वीकार्य हो, उन्हें कहना होगा कि उनके पूर्वज इसी देश से हैं और उन्हें मध्यकालीन इस्लामी हमलावरों की वंश परंपरा को छोड़ना होगा।

(नोट: संघ विचारक और वरिष्ठ नेता राम माधव ने भारत में मुसलमानों के लिए कुछ ‘सुझाव’ दिए हैं जिनको अपनाकर वह यहां आराम से रह सकते हैं। उनसे कुछ मांगे की गई हैं जो नई नहीं है पहले भी भारतीय मुसलमानों को ऐसे ‘मशवरे’ दिए जाते रहे हैं। संघ पीछे नहीं हटा है वो अपनी सोच पर डटा हुआ है, मुसलमान ऐसी बातों पर अपना स्टैंड बताता रहा है। “दि प्रिंट” को राम माधव का इंटरव्यू मौजूदा संदर्भ में काफी अहम हो जाता है द प्रिंट के आभार के साथ रोजनामा ख़बरें के पाठकों के समस्त पेश किया जा रहा है, इसमें जाहिर किए गए विचारों से सहमत होना जरूरी नहीं। संपादक)

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