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अकेले एक पार्टी (कांग्रेस) ने ही नहीं लड़ी आजादी की लड़ाई: एक नजरिया

RK News by RK News
December 31, 2022
Reading Time: 1 min read
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अकेले एक पार्टी (कांग्रेस) ने ही नहीं लड़ी आजादी की लड़ाई: एक नजरिया

कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे के स्वतंत्रता आंदोलन संबंधी बयान पर भाजपा का तीखा विरोध स्वाभाविक था। खडगे ने कहा कि आजादी दिलाने में कांग्रेस के नेताओं ने कुर्बानी दी लेकिन उनका तो कुत्ता भी नहीं मरा। खडगे ने कुत्ता शब्द का इस्तेमाल कर दिया अन्यथा कांग्रेस सहित कई पार्टियों के नेता लगातार कहते हैं कि भाजपा का स्वतंत्रता के आंदोलन में कोई योगदान नहीं था।

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कुछ यह भी कह देते हैं कि संघ अंग्रेजों के पक्ष में था। जब कोई बात जोर-शोर से बोली जाए तो बहुत सारे लोग उस पर विश्वास भी करने लगते हैं और उसी प्रकार की भाषा बोलते हैं। जाहिर है, इस विषय पर तथ्यात्मक तरीके से सच सच सामने लाना आवश्यक है।

कांग्रेस 15 अगस्त 1947 से पूर्व अनेक वर्षों तक स्वतंत्रता संघर्ष का भारत का सबसे बड़ा मंच था।

लेकिन वह कांग्रेस आज की तरह एक राजनीतिक पार्टी नहीं थी। अहिंसक आंदोलनों से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले दूसरी विचारधाराओं के लोग भी उस समय कांग्रेस के मंच से काम करते थे।

कांग्रेस के नेता जिस हिंदू महासभा की दिन रात आलोचना करते हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि एक ही व्यक्ति एक साथ हिंदू महासभा एवं कांग्रेस दोनों का सदस्य हो सकता था। यहां तक कि अध्यक्ष भी। पंडित मदन मोहन मालवीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे और कांग्रेस के भी।

वास्तव में सबका लक्ष्य अंग्रेजों से भारत की मुक्ति था और उसमें आज की तरह तथाकथित विचारधारा का तीखा विभाजन नहीं था।

वर्तमान कांग्रेस तब के कांग्रेस के उन नेताओं का नाम नहीं लेती जिनकी विचारधारा को हिंदुत्ववादी या संप्रदायिक मानती है। अंग्रेजों को प्रतिवेदन देने वाले मंच से प्रखर संघर्ष के रूप में कांग्रेस को परिणत करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बाल गंगाधर तिलक  के योगदान को कांग्रेस उस रूप में नहीं स्वीकारती जैसा था। यही बात लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं के साथ लागू होता है।

तिलक और लाला लाजपत राय दोनों उन स्वतंत्रता सेनानियों के प्रतिनिधि थे जो हिंदुत्व तथा धर्म अध्यात्म के आधार पर भारत का विचार करते थे। क्या इनका आजादी के आंदोलन में योगदान नहीं था? यह एक उदाहरण बताता है कि आजादी के आंदोलन को लेकर वर्तमान कांग्रेस की सोच संकुचित है। एक और उदाहरण लीजिए। डॉ राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी धारा के नेता भी कांग्रेस के साथ ही स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय थे। क्या कांग्रेस कभी इनकी और इनकी तरह दूसरे नेताओं के महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करती है?

वास्तव में छोटे बड़े संगठनों, संगठनों से परे और कांग्रेस में भी ऐसे लाखों की संख्या में विभूतियां थीं जिन्होंने अपने-अपने स्तरों पर स्वतंत्रता की लड़ाई में योगदान दिया, अपनी बलि दी। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर उन गुमनाम स्वतंत्र सेनानियों को तलाश कर सामने लाया जा रहा है। जितने सेनानियों के विवरण आ रहे हैं वे बताते हैं कि कोई एक संगठन ,कुछ नेता या कोई एक पार्टी स्वतंत्रता का श्रेय नहीं ले सकती।

अब स्वतंत्रता संघर्ष के बारे में कुछ दूसरे पक्ष।

भारत का स्वतंत्रता संघर्ष लंबे कालखंड से चलता रहा है।

जहां तक अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का प्रश्न है तो यह 1756-57 में प्लासी युद्ध के साथ आरंभ हो गया था। जैसे-जैसे अंग्रेजी शासन का विस्तार होता गया उनके विरुद्ध विद्रोह एवं संघर्ष भी बढ़ता गया। संघर्ष का अपना एक व्यापक लक्ष्य भी था।

कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई और अंग्रेजों के विरुद्ध मुखर आवाज बनने की शुरुआत बीसवीं सदी के पहले दशक के उत्तरार्ध से हुई जब 1905 में बंग- भंग आंदोलन हुआ।

उसके पहले अंग्रेजों से मुक्ति के संघर्षों की एक पूरी श्रृंखला है।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का ही सच क्या था? कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं को अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया था। फिर आंदोलन पूरे भारत में कैसे फैला? जगह-जगह लोगों ने स्वतः प्रेरणा से अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठाया और आंदोलन अहिंसक भी नहीं रहा। कांग्रेस नेताओं ने बयान जारी किया कि आंदोलन में हो रहे हिंसा से उनका कोई लेना देना नहीं है।

कहने का यह अर्थ नहीं कि 1942 का आंदोलन कांग्रेस का बिल्कुल नहीं था। कांग्रेस के स्थानीय सदस्य उसमें शामिल थे लेकिन बड़ी संख्या ऐसे लोग आंदोलन कर रहे थे जो कांग्रेस के सदस्य नहीं थे।

1942 से 47 के बीच का इतिहास बताता है कांग्रेस ने बाद में घोषित रूप से कोई राष्ट्रीय आंदोलन नहीं किया लेकिन पूरे देश में संघर्ष और आंदोलन होता रहा।

सैनिकों ने भी विद्रोह का का झंडा उठाया। मुंबई का नौसैनिक विद्रोह सबसे प्रचलित था लेकिन कई विद्रोह हुए।

उस समय के आंदोलनों में देश के ज्यादातर संगठनों की या संगठनों में काम करने वाले लोगों की जबरदस्त भूमिका थी।

जहां तक का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रश्न है तो उसने संगठन के रूप में आंदोलन में भाग नहीं लिया लेकिन स्वयंसेवक स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्षरत रहे और बलिदान भी दिया।

एक- संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार अपने  कोलकाता अध्ययन के दौरान तब के सबसे बड़े क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति के सदस्य थे।

दो- वहां से आने के बाद उन्होंने खिलाफत आंदोलन से असहमति रखते हुए भी असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और जेल गए। उन्होंने न्यायालय में अपनी बहस में जो कुछ कहा उसके बाद न्यायाधीश की टिप्पणी थी कि डॉ हेडगेवार ने जो किया उससे ज्यादा खतरनाक बयान उनका है। ऐसा व्यक्ति संघ की स्थापना के बाद अंग्रेजों का समर्थक हो गया यह वही कह सकते हैं जो मानसिक रूप से असंतुलित हो।

तीन- 1929 में कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित करने के बाद डॉक्टर हेडगेवार ने सभी शाखाओं पर तिरंगा झंडा फहराने का संदेश दिया और फहराया गया।

चार- नमक सत्याग्रह के लिए डॉक्टर हेडगेवार ने सरसंघचालक पद से कुछ समय के लिए स्वयं को अलग किया और डॉक्टर परांजपे को सौंपकर स्वयंसेवकों के साथ निकल पड़े।

इन सबमें विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं। सच यह है कि तब कांग्रेस डॉ हेडगेवार का समर्थन करती थी। कुछ उदाहरण देखिए।

असहयोग आंदोलन में जेल से छूटकर आने के बाद कांग्रेस ने डॉ हेडगेवार के सम्मान में सभा आयोजित की इसको मोतीलाल नेहरू सहित कई कांग्रेस के नेताओं ने संबोधित किया।

1930 में जंगल सत्याग्रह के दौरान जब डॉक्टर हेडगेवार को उनके 10 साथियों के साथ गिरफ्तार किया गया और 9 माह की सजा सुनाई गई तो वहां कांग्रेस के नेताओं ने उनके समर्थन में रैली का आयोजन किया।

सेंट्रल प्रोविंस और बरार पुलिस की रिपोर्ट को देखिए तो उसमें लिखा है कि डॉ हेडगेवार की भागीदारी के कारण अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन को गति मिली।

इन पर शोध करने वालों ने बताया है कि राजनीतिक आंदोलनों में संघ के बढ़-चढ़कर भाग लेने का परिणाम यह हुआ कि सेंट्रल प्रोविंस की सरकार ने 15/16 दिसंबर 1932 को एक सर्कुलर के जरिए  सरकारी कर्मचारियों को संघ की गतिविधियों से दूर रहने और इसका सदस्य बनने आदि को लेकर चेतावनी दी। सेंट्रल प्रोविंस की प्रांतीय विधानसभा में कांग्रेस के लोगों ने ही इसे चुनौती दी। विधानसभा में संघ की प्रशंसा हुई और सर्कुलर वापस हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध में संघ ने ब्रिटिश सरकार को समर्थन देने से जब इनकार किया 2 जून, 1940 में गृह विभाग ने सेंट्रल प्रोविंस सरकार से संघ पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहा। तत्कालीन मुख्य सचिव जी एम त्रिवेदी ने कहा कि यह संभव नहीं है तो प्रशिक्षण शिविरों और वर्दी पर रोक लगाने के लिए अध्यादेश लाया गया। इसके विरोध में स्वयंसेवकों ने भारी संख्या में गिरफ्तारियां दी। 1942 के आंदोलन के दौरान सेंट्रल प्रोविंस के चिमूर और आष्टी तहसील में पुलिस कार्रवाई में कई स्वयंसेवकों की मौत हुई ,अनेक जेल में डाले गए।

तब एक रिपोर्ट में कहा गया था कि संघ के स्वयंसेवक सेना, नौसेना, डाक व तार, रेलवे और प्रशासनिक सेवाओं में घुस गए हैं जिससे इन पर कब्जा करने में कोई समस्या नहीं आए। इस रिपोर्ट में कहा गया कि यह संगठन बहुत ज्यादा ब्रिटिश सरकार विरोधी है और इसकी आवाज उग्रवादी होती जा रही है। संघ के प्रशिक्षण शिविरों पर छापे मारकर स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया गया।

साफ है कि कांग्रेस के साथ-साथ कई दल, इतिहास के विद्वान, एक्टिविस्ट आदि लगातार झूठ फैलाते रहे हैं। यह केवल संघ ही नहीं दूसरे संगठनों और संगठन से परे काम करने वाले लाखों देशभक्तों के साथ अन्याय है जिन्होंने अंग्रेजों से मुक्ति के लिए जितना संभव था संघर्ष किया। अच्छा हो इस विषय को राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से परे रखा जाए।

अवधेश कुमार

Courtesy:Satya Hindi

यह लेखक के निजी विचार हैं

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