मनोज झा ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि शायद कोई भी छवि इतनी हृदयविदारक नहीं है जितनी कि फिलस्तीनी बच्चों की है. ये बच्चे भारत की पीढ़ियों को पोषित करने वाले पारले जी बिस्कुट के लिए तरस रहे हैं. गाजा की मलबे से भरी सड़कों पर ये सबसे सस्ते भारतीय बिस्कुट अब कीमती वस्तुएं बन गए हैं. ये बिस्कुट उन माता-पिता की पहुंच से बाहर हैं जो अपने बच्चों के लिए बुनियादी भोजन भी मुहैया कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
यह दर्दनाक वास्तविकता हमारी साझा मानवता और हर जगह बच्चों की रक्षा करने के हमारे कर्तव्य की एक कठोर याद दिलाती है. यदि किसी को बंदूक और बच्चों के बीच चुनना हो, तो हमेशा बच्चों को चुनना होगा. चाहे वह किसी की भी बंदूक हो, चाहे वह किसी के भी बच्चे हों. फिर भी, 12 जून को इजरायल-हमास संघर्ष के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की युद्धविराम प्रस्ताव पर भारत का तटस्थ रहना फिलस्तीनी मुद्दे के प्रति हमारी ऐतिहासिक एकजुटता के साथ विश्वासघात को दर्शाता है.
मनोज झा लिखते हैं समकालीन भारत की विदेश नीति सैद्धांतिक के बजाय अवसरवादी हो गई है. यह हमारी मूलभूत नैतिक परंपरा में नाटकीय बदलाव को दर्शाती है. यह लेन-देन आधारित दृष्टिकोण, हाल के दो फलस्तीन-संबंधी प्रस्तावों पर हमारे तटस्थ रुख में स्पष्ट है.
पूर्व प्रकाशित लेख के हवाले से लेखक अपनी बात जारी रखते हैं कि यह एक ऐसी सरकार के कार्यों को दर्शाता है जो मानती है कि “चुनावी बहुमत इतिहास सहित किसी भी चीज को रौंदने का लाइसेंस है.” इजरायल के साथ करीबी संबंधों के माध्यम से कथित रणनीतिक लाभों का पीछा करते हुए, भारत न तो वह अवसर हासिल कर सका है जो वह चाहता था और न ही अपनी नैतिक नेतृत्व की स्थिति को बनाए रख सका. यह विडंबना काफी स्पष्ट है. यह समझ से परे रुख हमें महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दों पर कूटनीतिक रूप से अलग-थलग कर चुका है, जो उस “वसुधैव कुटुंबकम” दर्शन के विपरीत है जिसे हम कथित रूप से अपनाते हैं.