मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली भारत की पहली निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री थे. इन्होंने पहली सरकार का गठन 1 दिसंबर, 1915 को अफ़ग़ानिस्तान में किया और उस सरकार में उनके साथ राष्ट्रपति थे राजा महेंद्र प्रताप सिंह.
वही उबेदुल्लाह सिंधी इस सरकार में गृह मंत्री थे. इनकी दोस्ती हिंदू-मुस्लिम एकता की भी मिसाल रही है. 1 दिसंबर का दिन इसलिये चुना गया क्योंकि इसी दिन राजा महेंद्र प्रताप सिंह की पैदाइश हुई थी.
लेकिन भोपाल से ताअल्लुक रखने वाले बरकतुल्लाह भोपाली वो क्रांतिकारी नेता हैं जिन्हें सरकारों ने लगभग भुला ही दिया है.
भोपाल में बरकतुल्लाह भोपाली के नाम पर शहर की यूनिवार्सिटी का नाम ज़रूर है लेकिन पिछले कुछ सालों में इस यूनिवर्सिटी के नाम को बदलने की भी मांग होती रही है.
आज जब देश आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है तब इतिहासकार और शहर से जुड़े लोगों का कहना है कि बरकतुल्लाह भोपाली को भुला देना मतलब अपने इतिहास से ऐसे व्यक्ति की यादों को मिटा देना है जिसने हिंदुस्तान की आज़ादी में एक अहम रोल अदा किया.
इतिहासकार अशर किदवई का कहना है कि जो भी सरकारें रही हैं उन्होंने सिर्फ अपनों को बढ़ाया और हक़ीक़त में जिनका योगदान रहा उन्हें भुला दिया गया.
उन्होंने कहा, “बरकतुल्लाह भोपाली भी उन्ही में से एक थे. देख लीजिये चाहे कांग्रेस जब थी तो उसने उन्हें ही बढ़ाया जो कांग्रेस से जुड़े क्रांतिकारी थी. अब जो सरकार है उसके लिये बरकतुल्लाह भोपाली को देखने का नज़रिया ही अलग है. इसलिये सिर्फ एक यूनिवर्सिटी का नाम रख दिया गया है उसके अलावा आपको इस शहर में ऐसी कोई चीज़ नज़र नहीं आएगी जो बताए कि बरकतुल्लाह भोपाली कौन थे और उनका योगदान क्या था.”
वहीं सैयद इफ्तिख़ार, जिन्होंने मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली पर लिखी गई किताब का अनुवाद किया है उन्होंने बताया कि, “बरकतुल्लाह भोपाली ने देश के बाहर रह कर देश की आज़ादी के लिये काम किया. वो लगातार अंतराष्ट्रीय स्तर पर दूसरे मुल्कों में भारत की आवाज़ को बुलंद करते रहे ताकि लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ एकजुट किया जा सकें. उन्हें हिंदुस्तान में बोलने की आज़ादी नही थी इसलिये वो बाहर चले गये.”
हालांकि सैयद इफ्तिख़ार का मानना है कि अब जो हुकूमत है वो ऐसी है कि उसने सभी असली क्रांतिकारियों को भुला दिया है.
बरकतुल्लाह यूथ फोरम भोपाल के कॉर्डिनेटर अनस अली आरोप लगाते हैं, “हुकूमत चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की दोनों ने बरकतुल्लाह भोपाली को जो सम्मान देना था वो नहीं दिया.”
अनस अली, बरकतुल्लाह यूथ फोरम भोपाल के ज़रिये बरकतुल्लाह भोपाली की यादों को ताज़ा रखने के लिये हर साल कई कार्यक्रम आयोजित करवाते हैं.
वो कहते हैं, “भोपाल में बरकतुल्लाह भोपाली के नाम पर एक यूनिवर्सिटी है. वो भी 1980 में उस वक़्त के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की देन से, जब भोपाल यूनिवर्सिटी का नाम बरकतुल्लाह यूनिवर्सिटी किया गया. उसके बाद से आज तक किसी सड़क, चौराहे, ब्रिज या स्टेशन का नाम बरकतुल्लाह भोपाली के नाम पर नहीं रखा गया. यह सबसे छोटी चीज़ है जो शहर उनके लिये कर सकता है.”
वो आगे कहते हैं, “यहां तक उनकी जयंती या पुण्यतिथि पर सरकारी प्रोग्राम तो दूर सरकार की तरफ़ से श्रद्धांजलि तक नहीं दी जाती यही रवैया विपक्षी दल का भी रहता है.”
आठ भाषाएं जानते थे बरकतुल्लाह
अशर किदवई कहते हैं, “किताबों तक में आप नहीं देखेंगे कि उनका कोई चैप्टर हो. वो सिर्फ उर्दू कि एक किताब में ज़रूर पढ़े जाते हैं लेकिन उर्दू पढ़ने वाले बच्चे कितने हैं. जबकि वो ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने राजा महेंद्र सिंह, लाला हरदयाल जैसे लोगों के साथ मिलकर काम किया और उनके साथ मिलकर आज़ाद भारत का ख्वाब देखा.”
बरकतुल्लाह भोपाली का जन्म 7 जुलाई 1854 को भोपाल के इतवारे इलाके में हुआ था. उनके पिता शुजाअत उल्लाह खान भोपाल हुकूमत में पुलिस में थे. बरकतुल्लाह भोपाली ने अपनी तालीम भोपाल के रेतघाट स्थित सुलेमानियां स्कूल से की थी जो आज भी मौजूद है. उसके बाद वो मुंबई चले गये.
बरकतुल्लाह भोपाली को कैलीग्राफी भी आती थी. इसके अलावा अरबी, फ़ारसी, इंग्लिश, जापानी सहित उन्हें आठ भाषाओं का ज्ञान था.
शिक्षा प्राप्त करने के बाद शुरुआत दौर में उसी स्कूल में शिक्षक के तौर पर पढ़ाना शुरू कर दिया था. उसके बाद ब्रिटिश विरोधी नज़रिया रखने की वजह से वो भोपाल छोड़कर चले गये. वो मुंबई पहुंच गये और वहां पर वो फिर से एक स्कूल में पढ़ने लगे ताकि अंग्रेज़ी की शिक्षा ले सकें.
1887 में वो लंदन चले गये और वहां पर उर्दू, अरबी और फ़ारसी पढ़ाने लगे. साथ ही वो ख़ुद जर्मन, फ्रेंच और जापानी सीखने लगे. उसके बाद वो ओरियंटल कॉलेज ऑफ यूनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल में पढ़ाने लगे. इस दौरान वो इंडिया हाउस में लगातार भारतीय क्रांतिकारियों के संपर्क में आते रहे और वो वहां रहकर ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ झंडा बुलंद करते रहे.
इंग्लैंड के बाद वो अमेरिका (1903), जापान (1909), जर्मनी (1914), तुर्की ,अफगानिस्तान (1915), सोवियत यूनियन (1919), फ्रांस और रोम (1924) में गये. उन्होंने जापान की टोक्यो यूनिवर्सिटी में अरबी की शिक्षा भी दी.
गोखले और श्यामा प्रसाद मुखर्जी से प्रेरित थे
बरकतुल्लाह भोपाली गोपाल कृष्ण गोखले और श्यामा प्रसाद मुखर्जी से भी काफी प्रभावित थे. बरकतुल्लाह भोपाली वो व्यक्ति थे जिन्होंने देश के बाहर रह कर विदेश में अंग्रेज़ विरोधी गतिविधियों को आगे बढ़ाया जिसकी वजह से उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ.
उन्होंने विदेश में रहकर अंग्रेज़ विरोधी खैमा तैयार किया, इसके लिये एक देश से दूसरे देश की यात्रायें कीं, उनके राष्ट्र प्रमुखों से मुलाकात की. जिसमें रूस के लेनिन भी शामिल रहे हैं. बरकतुल्लाह भोपाली की विदेश यात्राओं का मक़सद ब्रिटिश विरोधी शक्तियों को जोड़ना था.
बरकतुल्लाह भोपाली ग़दर पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. उनकी ख़ासियत यह रही है कि ग़दर पार्टी के अख़बार ग़दर के संपादक भी बरकतुल्लाह भोपाली थे जो अंग्रेज़ विरोधी इंक़लाबी तहरीर लिखा करते थे.
बरकतुल्लाह भोपाली की मौत अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को में 20 सितंबर 1927 को हुई. उन्हें इस उम्मीद के साथ दफ़नाया गया था कि जब हिंदुस्तान आज़ाद हो जाएगा तो उनके जिस्म को हिंदुस्तान में दफ़न किया जाएगा लेकिन ऐसा न हो सका.
राजा महेंद्र प्रताप सिंह के अनुसार प्रोफ़ेसर बरकतुल्लाह भोपाली ने कहा, “मैंने ईमानदारी के साथ अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष किया है पर आज जब मैं इस दुनिया को छोड़ रहा हूँ मुझे अफ़सोस है. मैं देश को स्वतंत्र नहीं देख सका पर मुझे विश्वास है लाखों देशभक्त बहादुर ईमानदार नौजवान आगे आएंगे और इस देश को आज़ाद करायेंगे मैं अपने देश का भाग्य उन वीरों को सौंपता हूं.”
“बरकतुल्लाह भोपाली देश के लिए जिए देश के लिए मरे.”
आभार: बीबीसी हिंदी