प्रियदर्शन
सोमवार के लालू यादव पुराने दिनों के लालू यादव थे. उनकी भाषा और देह-मुद्रा में कहीं आक्रामकता नहीं थी. भाषण के आख़िरी हिस्से में अभिमान का हल्का पुट ज़रूर दिखा जब उन्होंने तेजस्वी के तेजस्वी भाषण और कामकाज की चर्चा की.
उनकी देह पर उम्र और बीमारी के निशान दिख रहे थे. आरजेडी के 25वें स्थापना दिवस पर अपने बेटे तेजस्वी यादव को बोलते देख रहे लालू यादव को देखकर पहली बार यही लग रहा था कि मन और तन से वे स्वस्थ नहीं हैं. यह संदेह भी हो रहा था कि लालू यादव तेजस्वी की बात पूरी तरह सुन और समझ पा रहे हैं या नहीं, उनका राजनीति-निष्णात बेटा जिस तरह राजनीतिक तर्क और तंज़ से काम ले रहा है, उस पर उनकी नज़र है या नहीं.
लेकिन तेजस्वी का भाषण ख़त्म हुआ और लालू यादव ने बोलना शुरू किया तो समझ में आया कि देह चाहे जितनी टूटी हो, दिल और दिमाग़ पर अभी उसकी खरोंचें नहीं पड़ी हैं. यह एक बदले हुए लालू यादव थे- या वापस लौटे लालू थे. क्योंकि बीच के वर्षों में उनके भाषणों में खोखला शब्दाडंबर ज़्यादा होता था, जिस वाक-चातुर्य को उन्होंने अपनी सत्ता की शुरुआत में साधा था, वह कभी-कभी कारुणिक विदूषकीयता तक पहुंची दिखती थी, उनके हमले भोंथरे और उनके दावे बेमानी मालूम होते थे.
लेकिन सोमवार के लालू यादव पुराने दिनों के लालू यादव थे. उनकी भाषा और देह-मुद्रा में कहीं आक्रामकता नहीं थी. भाषण के आख़िरी हिस्से में अभिमान का हल्का पुट ज़रूर दिखा जब उन्होंने तेजस्वी के तेजस्वी भाषण और कामकाज की चर्चा की. लेकिन इसके पहले वे जैसे निरपेक्ष होकर बोल रहे थे- अपनी स्मृति के गह्वरों से अपने राजनीतिक संघर्षों के उन दिनों को निकालते हुए जिसने उन्हें लालू यादव बनाया था. उन्होंने राम मनोहर लोहिया की चर्चा की. जब उन्होंने ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ के मंत्र को याद किया तो बरसों पुराना एक राजनीतिक संघर्ष याद आया. उन्होंने जयप्रकाश नारायण और उनकी संपूर्ण क्रांति को याद किया. उन्होंने याद किया कि मंडल लागू करने की मांग लेकर वे कैसे कर्पूरी ठाकुर के साथ दिल्ली गए थे और रास्ते में लाठी खाई थी. ‘ठाकुर तेरे सपनों को दिल्ली तक पहुंचाएंगे’ का नारा भी याद किया. उन्होंने मंच पर बैठे अपने साथियों को नाम ले-लेकर भी पहचाना और कहा कि वे कुछ भूले नहीं हैं.
सवाल है, इससे क्या होता है. बहुत सारे अपयश वाला अतीत लेकर लौटा 73 साल का एक नेता क्या बस इसलिए कोई बदलाव ले आएगा कि उसे अपनी राजनीति के प्रारंभिक दिन याद हैं? और क्या उस समाजवादी राजनीति को आज कोई याद करता है?
लेकिन इस सवाल की पड़ताल करें तो शायद हमें अपनी राजनीति और अपने समाज दोनों को लेकर कुछ ऐसे नतीजे मिलें जिन्हें देखना और समझना हमारे लिए ज़रूरी है.
मसलन, लालू यादव की सत्ता का वह दौर बहुत लोगों को बिहार का जंगल राज लगता रहा. सब मानते रहे कि उनके समय क़ानून-व्यवस्था बिल्कुल पंगु हो गई, लोग पढ़ाई-लिखाई और रोज़गार के लिए पलायन करने लगे, अपहरण उद्योग चल पड़ा और लोगों का वहां रहना मुहाल हो गया. दूसरा आरोप चारा घोटाले का लगा जिसकी वजह से उन्हें जेल भी काटनी पड़ी और राजनीति से दूर भी रहना पड़ा. तीसरा आरोप अपनी गिरफ़्तारी के बाद अपनी अशिक्षित पत्नी को कुर्सी पर बिठाने का रहा, जिसको लेकर आज तक चुटकुले बनते हैं.
लेकिन सच्चाई क्या है? लालू यादव ने कहा कि उन्होंने सदियों से जल रही रोटी बस पलट दी, उनकी वजह से पहली बार वंचित तबकों के लोग मतदान केंद्रों तक पहुंच पाए, उन्होंने गरीब का राज चलाया जिसे जंगल राज का नाम दे दिया गया.
कह सकते हैं कि लालू यादव की यह सफ़ाई राजनीतिक है. लेकिन क्या लालू यादव पर लगाए गए इल्ज़ाम राजनीतिक नहीं हैं? मसलन, क्या यह सच नहीं है कि बिहार में छात्रों का पलायन 1990 तक चरम पर पहुंच चुका था, जब लालू यादव मुख्यमंत्री भी नहीं बन पाए थे. क्या यह सच नहीं है कि विश्वविद्यालयों में स्वजातीय प्राध्यापकों की बेशर्म नियुक्ति का सिलसिला पहले से ही चला आ रहा था जिसे लालू राज में भी रोका नहीं जा सका? या क्या यह सच नहीं है कि अस्सी के दशक में ही बहुत सारे नरसंहारों से बिहार की धरती लाल थी और ऊंची जातियों की सेनाएं दलितों की बस्तियों में तबाही मचाया करती थीं?
दरअसल लालू यादव के आते ही वाकई चक्का कुछ पलट गया. पिटने वाली जातियां बरसों पुराने धधकते प्रतिरोधों को अंजाम तक ले जाने लगीं जो अपने-आप में एक नई अराजकता का जनक साबित हुआ. गांवों में दिखने वाली हिंसक सामंती ऐंठ पटना तक चली आई और ज़मीन-क़ब्ज़े से लेकर अपहरण तक का खेल मझोली और निचली जातियों के हाथ चला आया. जातीय घृणा से बजबजाते बिहार के मध्यवर्ग के लिए दरअसल यह हिंसा जितनी डरावनी थी उससे ज़्यादा तकलीफ़देह यह तथ्य था कि सत्ता उनकी निगाह में ‘गंवार’ और ‘अनपढ़’ लोगों के हाथ में चली गई है. राम मंदिर आंदोलन में रथनुमा ट्रक लेकर घूम रहे और जगह-जगह ख़ून की लकीरें छोड़ कर बढ़ रहे लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी इस तकलीफ़ का एक और पहलू थी. उधर पिछड़ों और वंचितों के समर्थन से राजनीति की एक नई भाषा ईजाद कर रहे लालू यादव का दर्प भी बढ़ता जा रहा था. बल्कि केंद्रीय सत्ता में भी उनकी धमक बढ़ रही थी. इस क्रम में उन्होंने चरवाहा विद्यालय जैसा अनूठा प्रयोग किया जिसका तब भी अगड़े अहंकार में डूबा, नंबर, ट्यूशन, कोचिंग और सिफारिश के दम पर टॉप करने वाला तबका मज़ाक उड़ाता रहा.
दरअसल ये राजनीतिक जमात ही नहीं थी, सामाजिक जमात भी थी जो लालू यादव के राजनीतिक प्रतिशोध के रास्ते खोज रही थी. इसलिए जैसे ही चारा घोटाला सामने आया, बिहार के एक बड़े हिस्से ने इसे लपक लिया. पिछ़ड़ों का मसीहा अचानक भ्रष्टाचार का प्रतीक पुरुष बन गया. बिहार में अब लालू यादव को छोड़कर जैसे हर कोई भ्रष्टाचारविहीन था. लालू यादव जेल गए और इस अकेलेपन में उन्होंने एक और बड़ा फ़ैसला किया- अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना डाला. इससे पहले से ही नाराज़ चल रहे उनके अपने सहयोगी भी बिदक गए और अंततः उनकी पार्टी भी बिखर गई और उनका जादू भी बिखर गया.
इसमें शक नहीं कि सामाजिक क्रांति की जो बड़ी संभावना लालू यादव ने पैदा की थी, अंतत: वह एक नई यथास्थिति के निर्माण के काम आकर विलुप्त हो गई. लेकिन यह राजनीतिक संस्कृति लालू यादव ने पैदा नहीं की थी- वह उन्हें विरासत में मिली थी. लालू यादव के बाद सत्ता संभालने वाले नीतीश कुमार ने ख़ुद को सुशासन बाबू की तरह प्रस्तुत किया, लेकिन उस सुशासन की सच्चाई क्या है? दरअसल एक मिथक लालू यादव का जंगल राज था तो दूसरा मिथक नीतीश कुमार का सुशासन था. लालू यादव के दौर में भी बिहार अपनी ही चाल से चल रहा था और नीतीश कुमार के समय भी- बस उसको चलाने वाली शक्तियां बदल रही थीं.
लेकिन सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सौहार्द को लेकर लालू यादव की प्रतिबद्धता असंदिग्ध तौर पर बनी रही. सत्ता के लिए उन्होंने भी समीकरण बनाए, लेकिन वैसे अवसरवादी गठजोड़ों के लिए नहीं जाने गए, जिनमें लेफ्ट को छोड़ दें तो बाक़ी भारतीय राजनीति लगभग आकंठ डूबी नज़र आती है. इस अवसरवाद में बीजेपी ने नई कसौटियां बनाईं तो नीतीश ने भी नए करिश्मे किए. जिस लालू यादव को पानी पी-पीकर कोसते रहे, उनसे 2015 में समझौता किया और जब यहां असुविधा महसूस की तो फिर उस मोदी के साथ हो लिए जिनकी सांप्रदायिकता पर हमेशा सवाल खड़े करते रहे. अपराधियों का साथ लेने में भी वे कभी पीछे नहीं रहे.
दरअसल आरजेडी के 25वें स्थापना दिवस पर लालू यादव के अनुभव और तेजस्वी की ऊर्जा के संयोग का इस लिहाज से बड़ा मतलब है. तेजस्वी ने देखा है कि राजनीतिक भूलें अपनी कितनी बड़ी क़ीमत वसूल करती हैं- ख़ासकर उन तबकों से जो सामाजिक और ऐतिहासिक तौर पर पिछड़े हुए हैं. उन्होंने यह भी समझा होगा कि अगड़ी राजनीति कितनी आसानी से पिछड़े तबकों में दरार डाल देती हैं. बिहार में अतिपिछड़ा और महादलित जैसी सरणियां खड़ी हो चुकी हैं जो लालू यादव के ख़िलाफ़ भी इस्तेमाल की गईं.
शायद यह भी एक वजह रही कि लालू यादव जेल, अस्पताल और बीमारी के बाद जब अपने कार्यकर्ताओं से मुख़ातिब हुए तो उन्होंने जातिगत गठजोड़ की बात नहीं की, यादव-मुसलमान, या पिछड़ा-दलित समीकरण का हुंकार नहीं भरा, बल्कि समाजवादी मूल्यों और समाजवादी विरासत को याद किया. अपनी बहुत सारी विडंबनाओं के बावजूद समाजवाद ही वह विचार है जिसमें खांटी भारतीय परंपरा का स्पर्श भी दिखता है और आधुनिक विश्वासों का संगम भी. अगर लालू और तेजस्वी इस विरासत के प्रति नए सिरे से सचेत होते हैं तो यह भारतीय राजनीति के लिए एक बड़ा और सुखद बदलाव होगा. वरना सांप्रदायिक वैमनस्य और आर्थिक लोलुपता की मारी भारतीय राजनीति फिर वही खेल खेलती रहेगी जो हिंदू विकास के नाम पर बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक शक्तियां इसे खेलने को प्रेरित करती रही हैं.