✍लेखक : कलीमुल हफ़ीज़
भारत में मुसलमान लगभग एक हज़ार साल से आबाद हैं। लम्बे समय तक वो शासक रहे। इसके बावजूद उनकी सियासी सूझबूझ और सियासी समझ पक्की नहीं है। भारत में वो सियासी तौर पर कोई ताक़त नहीं बन सके। कोशिशें हुईं, लेकिन नाकाम हो गईं। लीडर्स उठे, मगर अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला। कुछ तहरीकें बहुत ज़ोर-शोर से उठीं लेकिन साबुन के झाग साबित हुईं।
अब भी कोशिशें हो रही हैं, लेकिन उम्मीद का सूरज निकलता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। जबकि हर पार्टी, जमात और हर गरोह इसकी ज़रूरत गुज़रते वक़्त के साथ शिद्दत से महसूस करता रहा है। अपने-आपको मिल्लत का सेवक समझनेवाला हर व्यक्ति फ़िक्रमंद है। हर चेहरे पर फ़िक्र के आसार हैं। फिर क्या वजह है कि मुसलमान सियासी हैसियत में पहले से ज़्यादा बे-वज़्न हो गए हैं? मेरी राय में इसकी कुछ वजहें हैं।
सबसे पहली वजह ये है कि भारत का आम मुसलमान कभी सियासी नहीं रहा। मुस्लिम बादशाहों के ज़माने में भी आम मुसलमान का ताल्लुक़ सल्तनत के सियासी मामलों से बिलकुल भी नहीं था। बादशाहत, सल्तनत और पूरा राज्य कुछ एक क़बीलों और ख़ानदानों तक महदूद थी। उसी के लोग अपनी सियासी चालें चलते थे, वही आपस में बादशाह बनने या बादशाह को बेदख़ल करने की साज़िशें करते थे। बादशाह की अपने साम्राज्य को फैलाने की फ़िक्र उसे आसपास के राज्यों पर कभी हमला करने के लिये उकसाती या कभी डिफ़ेंसिव जंग पर मजबूर करती, बादशाह का ज़्यादा वक़्त मैदाने-जंग की नज़र हो जाता या अपनों से अपनी और अपने राज्य की हिफ़ाज़त में गुज़र जाता।
कोई वोटिंग सिस्टम नहीं था। देश में बादशाहत थी, राज्यों में नवाब थे, इलाक़ों में ज़मींदार थे। आम जनता को सियासी मामलों में न दिलचस्पी थी और न ये उनकी ज़रूरत थी। ब्रिटिश राज में भी यही सिस्टम क़ायम रहा। सियासत में केवल हाकिम बदलते थे, बाक़ी सब कुछ जैसे चल रहा था वैसे ही था, अलबत्ता तालीम की बहुतायत और सइंसी तरक़्क़ी ने आम लोगों को हालात से बाख़बर ज़रूर कर दिया था।
दूसरी वजह ये रही कि आज़ादी के बाद मुसलमानों का वो तबक़ा जिसके पास इल्म भी था और किसी हद तक उनका सियासी शुऊर भी बेदार हो चुका था, देश के बँटवारे के नतीजे में पाकिस्तान चला गया। इस तरह भारतीय मुसलमान अपने अच्छे और समझदार लोगों से महरूम हो गए।
तीसरी वजह मुसलमानों में दीन के सही तसव्वुर की कमी है। भारतीय मुसलमानों को मज़हबी गरोह ने ये तालीम दी कि सियासत और हुकूमत दीन में नहीं है। दीन तो चिल्ला खींचने, ज़िक्र करने, नमाज़ और रोज़े का नाम है। इस तसव्वुर ने हमारे आम लोगों को सियासत से बिलकुल बेदख़ल कर दिया। वो सियासत को गुनाह समझने लगे। उस वक़्त के सियासी लीडर्स और मज़हबी गरोह ने हिस्सेदारी के बजाय ताबेदारी की सियासत को बढ़ावा दिया, नेक लोग मस्जिद और ख़ानक़ाहों तक महदूद हो गए।
मस्जिदों में सियासत का ज़िक्र करना तो दूर की बात, अगर तिजारत और लेन-देन के मामलों का ज़िक्र भी किसी ने कर दिया तो क़ौम ने ये कहकर रोक दिया कि ये दुनियादारी की बातें मस्जिद में नहीं हो सकतीं। इस पर फ़तवे पूछे जाने लगे कि क्या मस्जिद के लाउडस्पीकर से किसी तिजारती चीज़ की ख़रीद-बिक्री का ऐलान हो सकता है या नहीं? इस सूरतेहाल ने आम लोगों को सियासत से दूर कर दिया। अगर कुछ लोग आए भी तो वो दुनियादार कहलाए, उन्होंने भी कभी उसे दीनी फ़र्ज़ नहीं समझा। जिसने समझा उसको आलिम हज़रात के फ़तवों ने काफ़िर बना दिया।अब आप ही सोचिये पिछले सत्तर साल से जिस क़ौम को यही पढ़ाया जा रहा हो वो किस तरह सियासी तौर पर कोई ताक़त बन सकती है।