डॉ. मुहम्मद रज़ीउल इस्लाम नदवी
(इस्लामी विद्वान)
जिन लोगों ने किसी रेगिस्तान में दिन में यात्रा की हो वो ‘सराब’ (मृगतृष्णा) से अच्छी तरह परिचित होंगे। रास्ता चलते हुए आगे कुछ दूरी पर रेत इस तरह चमकती है जैसे पानी की लहरें उठ रही हूँ। हक़ीक़त में ये पानी नहीं होता, बल्कि रेत पर सूरज की किरनें पड़ने से देखने वाले को पानी का वाहिमा होता है। यात्री जूँ-जूँ आगे बढ़ता है, सामने की रेत पानी की लहरों की तरह चमकती रहती है। वह चाहे कितनी भी लंबी यात्रा कर ले, उस तक कभी नहीं पहुंच पाएगा। यहीं से उर्दू साहित्य में इस शब्द का प्रयोग होने लगा। जब इच्छा और संघर्ष के बावजूद कुछ भी हासिल नहीं होता तो उसे सराब के पीछे भागना समझा जाता है। उर्दू कवियों ने इस पर कई लेख लिखे हैं और अधूरी ख्वाहिशों पर अफसोस जताया है।
दिल्ली हाईकोर्ट को कुछ दिनों पहले तलाक़ के एक मामले में फ़ैसला सुनाते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड की फिर याद आगई। मुद्दा ये था कि पति हिंदू मैरिज ऐक्ट के मुताबिक़ तलाक़ चाहता था, जब कि पत्नी का कहना था कि वह मीना जाति से है, इसलिए हिंदू मैरिज ऐक्ट इस पर लागू नहीं होता। पति ने पत्नी की इस तर्क के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। इसलिए कोर्ट के सामने ये सवाल पैदा हुआ कि क्या तलाक के संबंध में फैसला हिंदू मैरिज एक्ट के अनुसार दिया जाना चाहिए या मीना समुदाय के सिद्धांत के मुताबिक। इस मामले पर विचार करते हुए हाईकोर्ट ने यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने की आवश्यकता महसूस की। इसलिए जस्टिस प्रतिभा ऐम सिंह ने अपने फ़ैसले में कहा कि आज का भारत धर्म, जाति और समुदाय से आगे निकल गया है।। नए भारत में धर्म और जाति के बंधन धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं। इस परिवर्तन के कारण विवाह और तलाक में समस्याएँ पैदा हुई हैं। आज की युवा पीढ़ी को इन समस्याओं से ग्रस्त नहीं होने दिया जाना चाहिए, इसलिए देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की आवश्यकता है।
भारत के संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों के तहत, अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि सरकार पूरे देश में एक यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का प्रयास करेगी। इसका मतलब यह हुआ कि शादी, तलाक, विरासत और परिवार के अन्य कानून देश के सभी नागरिकों के लिए समान होंगे, चाहे उनका धर्म या राष्ट्रीयता कुछ भी हो।। ये ऐसी बात थी जिसे मुल्क के मुस्लमान किसी भी परिस्थिति में स्वीकार्य नहीं हो सकते थे, क्योंकि वे इसे अपने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप मानते थे। इसलिए उसी ज़माने में उनके गुस्से को ठंडा करने के लिए संविधान सभा में यह घोषणा की गई थी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
यह संविधान का एक बड़ा अंतर्विरोध है कि यह एक ओर समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन को प्रोत्साहित करता है और दूसरी ओर यह अल्पसंख्यकों को अपने व्यक्तिगत कानून का पालन करने की स्वतंत्रता देता है।
सरकार ने अब तक एक यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने के लिए कई कदम उठाए हैं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।1963 मैं इस की तरफ़ से एक आयोग के गठन की मंशा ज़ाहिर की गयी थाी, जिसका मक़सद मुस्लिम पर्सनल ला में बदलाव के लिए सोच विचार करना और ऐसा करने के व्यावहारिक तरीके खोजना था, लेकिन मुसलमानों के कड़े विरोध के कारण, आयोग का गठन नहीं हो सका था।1972 में भी यही नीति दोहराई गई। संसद में मुतनब्बी(गोद लेने)का बिल पेश करते समय कहा गया कि यह यूनिफॉर्म सिविल कोड की दिशा में एक मजबूत कदम है। लेकिन मुस्लमानों के विरोध के बाद उन्हें इस में शामिल नहीं किया गया और उसे उनके लिए इख़तियारी (ऐच्छिक) रखा गया। इसके बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना हुई, जो अल्लाह का शुक्र है, मुस्लिम पर्सनल लॉ की रक्षा के लिए समान रूप से मूल्यवान कदम उठा रहा है।
यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में जो तर्क दिए जाते हैं वो बड़े बोदे और लचर हैं। उदाहरण:
* कहा जाता है कि संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांत में हुकूमत को पाबंद किया गया है कि वो यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए कोशिश करे, इसलिए सरकार इस संबंध में जो भी कदम उठाती है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। ऐसा कहने वाले इस बात पर ध्यान नहीं देते कि संविधान ही अल्पसंख्यकों को अपने पर्सनल लॉ पर अमल करने की आजादी देता है। दोनों के बीच खुला विरोधाभास है। हमें पहले इस अंतर्विरोध को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
* कहा जाता है कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, जिसके लिए यह आवश्यक है कि इसके कानून धार्मिक प्रतिबंधों से मुक्त हों। इस सिलसिले में ये बात नोट करने की है कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब वो नहीं जो ये लोग बताते हैं, बल्कि इस का सही मतलब ये है कि सरकार का कोई धर्म नहीं होगा, वो किसी धर्म की समर्थक नहीं होगी और मुल्क में रहने वाले हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता होगी।
* कहा जाता है कि धार्मिक कानून बहुत पुराने हैं और आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं। ये बात अन्य धर्मों के लिए सच हो सकती है, लेकिन इसे इस्लाम पर लागू करना बिलकुल सही नहीं है। इस्लाम के पारिवारिक कानून बहुत वैज्ञानिक और न्याय पर आधारित हैं और वे आधुनिक आवश्यकताओं के पूर्ण सामंजस्य में हैं। उनके बारे में ग़लत-फ़हमियाँ इस वजह से पैदा होती हैं कि बहुत से मुस्लमान उन पर अमल नहीं करते और कमज़ोरों पर अत्याचार करते हैं। अगर सभी इस्लामी शिक्षाओं का पालन किया किया जाये तो उसकी चेतना और मानव स्वभाव से उसकी सामंजस्य को दुनिया देखेगी।
एक महत्वपूर्ण बात ये है कि मुस्लमान अपने धर्म से गहरा लगाव रखते हैं। उनके लिए इबादत, नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज जितने ज़रूरी हैं उतने ही ज़रूरी शादी, तलाक़, ख़ुला, वसीयत, विरासत और परिवार के दूसरे नियम और क़ानून हैं। वे किसी भी परिस्थिति में उन्हें छोड़ नहीं सकते, भले ही उन्हें खून की नदी पार करनी पड़े।
* कहा जाता है कि देश में राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा देने और नागरिकों के बीच एकता और सद्भाव की नींव को मजबूत करने के लिए यह आवश्यक है कि सभी के व्यक्तिगत कानून समान हों। जब कानून भिन्न होते हैं, तो वे कलह का स्रोत बन जाते हैं और राष्ट्रीय एकता को कमजोर करते हैं। ये भी बग़ैर सोचे समझे कही जाने वाली बात है। सभी धर्मों के अनुयायियों को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देने से एकजुटता आएगी, न कि सभी को समान कानूनों से बांधने से।। एकजुटता, सहिष्णुता और सहनशीलता की भावना को बढ़ावा देने से पैदा होगी ना कि एक संस्कृति सब पर थोपने की कोशिश से। इसका एक प्रमुख उदाहरण भाषा है। देश में बीसों भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन इस अंतर को स्वीकार किया गया है, उसे एकजुटता में रोड़ा नहीं माना गया है और सभी भाषाओं को समाप्त करके देश के सभी लोगों को एक भाषा बोलने के लिए मजबूर करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है।। ऐसी ही स्वतंत्रता सभी धर्मों के विश्वासियों को व्यक्तिगत नियमों पर अमल करने के सिलसिले में भी दी जानी चाहिए।
देश के ज़िम्मेदारों को यह समझना चाहिए कि वो यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने में कभी सफल नहीं हो सकते।। ये वो सराब (मृगतृष्णा) है जो देखने में बहुत सुंदर मालूम होता है, लेकिन कोई उस के पीछे जितना भी दौड़े वो दूर से दूर-तर होता जाता है और कभी हाथ नहीं आता। बुद्धिमत्ता इसी में है कि इस सपने को छोड़ दिया जाये और सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने धर्मों, संस्कृतियों, रीति-रिवाजों और परंपराओं और व्यक्तिगत कानून का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाये।
अनुवाद: मोहम्मद असद फलाही