उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) विधेयक.के क़ानून बनने के साथ ही उत्तराखंड में रहने वाले सभी धर्मों के लोगों पर तलाक़ और शादी जैसे तमाम मामलों में एक ही क़ानून लागू होगा.
बीजेपी ने साल 2022 में उत्तराखंड का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद ही इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिए थे.
सुप्रीम कोर्ट की रिटायर्ड जज जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में एक पैनल का गठन किया गया था. इसी पैनल ने राज्य सरकार को 479 पन्नों की एक ड्राफ़्ट रिपोर्ट पेश की थी.
लेकिन सवाल ये उठता है कि ये विधेयक उत्तराखंड विधानसभा में ही क्यों पेश किया गया है जबकि बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए की देश के 17 राज्यों में सरकारें हैं.
इसका जवाब वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी देती हैं.
वह कहती हैं, “देखिए, यूसीसी भाजपा का एक मुख्य मुद्दा है जो अब तक अधूरा है. तीन तलाक़ का मुद्दा पूरा हो गया. इससे पहले जब इन्होंने इस दिशा में पहला प्रयोग किया था तब आदिवासियों की ओर से काफ़ी विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ा था.”
“ऐसे में उन्होंने इस दिशा में आगे नहीं बढ़ने का फ़ैसला किया. क्योंकि आदिवासी भाजपा का एक महत्वपूर्ण मतदाता वर्ग है. यहां भी आदिवासियों को छूट दी गयी है. अब उत्तराखंड में मुसलमान आबादी ज़्यादा नहीं है. ऐसे में यहां ये विधेयक लाया जाना एक प्रयोग जैसा है.”
लेकिन सवाल ये उठता है कि बीजेपी इस विधेयक को उत्तराखंड में पास करके क्या हासिल करना चाहती है.
इस सवाल के जवाब में नीरजा चौधरी कहती हैं, “बीजेपी उत्तराखंड में ये विधेयक पास कराकर एक प्रयोग जैसा करना चाहती है. वह देखना चाहती है कि इस पर कैसी प्रतिक्रिया होती है. वह इसके क़ानूनी पहलुओं को भी देखना चाहती हैं कि क्या एक समुदाय को बाहर रखकर समान नागरिक संहिता लागू की जा सकती है. या ये कुछ विशेष समुदायों पर लागू हो सकता है. या ये अदालत में मूल अधिकारों के सामने कैसे खड़ा होगा. ऐसे में ये एक तरह से एक प्रयोग है. लेकिन इसके साथ ही ये बताने की कोशिश भी की जा रही है कि हम इसे लेकर गंभीर हैं.”
हिंदू बहुल है उत्तराखंड
उत्तराखंड की बात करें तो यहां की आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी लगभग 13 फीसद है जो कि उत्तर प्रदेश की तुलना में सिर्फ छह फीसद कम है.
ऐसे में बीजेपी ने उत्तराखंड का चुनाव क्यों किया, इस सवाल का जवाब अमर उजाला के देहरादून संपादक दिनेश जुयाल देते हैं.
वह कहते हैं, “उत्तराखंड में सबसे पहले यूसीसी विधेयक लाने की एक वजह इसका एक छोटा राज्य होना है. दूसरी बात ये है कि ये एक तरह से हिंदू स्टेट है. यहां चारधाम है, देवस्थली है, देवभूमि है. एक तरह से ये हिंदुओं का गढ़ है. थोड़ी सी मुस्लिम आबादी है जो कि मैदानी इलाकों में रहती है. ऐसे में यहां यूसीसी के मुद्दे पर विरोध की वैसी कोई गुंजाइश नहीं है.”
उत्तराखंड की मुसलमान आबादी का घनत्व पूरे राज्य की जगह शहरों में ज़्यादा दिखाई देता है.
उदाहरण के लिए, मुसलमान समुदाय की ज़्यादातर आबादी तराई के ज़िलों जैसे देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर में रहती है. इसके साथ ही हल्द्वानी और अल्मोड़ा में भी मुस्लिम आबादी की मौजूदगी है.
वहीं, हिंदू आबादी मैदान से लेकर पहाड़ तक हर जगह मौजूद है जहां बीजेपी अपनी ज़मीन मजबूत करने की दिशा में काम कर रही है.
जुयाल बताते हैं, “आरएसएस और बीजेपी की ओर से राज्य के हिंदूकरण करने की दिशा में मजबूती से प्रयास किए गए हैं. सरकार के स्तर पर भी पूर्व सैनिकों से लेकर महिलाओं को लुभाने की दिशा में जो काम किए गए हैं, उसकी वजह से यहां मोदी मैजिक भी काफ़ी है. पहाड़ों पर जहां कृषि से उतनी कमाई नहीं होती है, वहां सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचने की वजह से लोगों का सरकार के प्रति सकारात्मक रुख है.”
लेकिन सवाल उठता है कि क्या बीजेपी ने 2024 के चुनाव को ध्यान में रखकर चुनाव अभियान शुरू होने से ठीक पहले पटल पर ये विधेयक पेश करने का फ़ैसला किया.
इस सवाल का जवाब देते हुए नीरजा चौधरी कहती हैं, “ये पूरी तरह से गंभीर दिखने की कोशिश है. बीजेपी दिखाना चाहती है कि उसने जो वायदे किए हैं, उन्हें लेकर वह पूरी तरह गंभीर है. अगर वह उत्तराखंड के पटल पर इसे पास करा लेती है तो चुनाव मैदान पर ये कह सकती है कि वह अपने एजेंडे को लेकर पूरी तरह गंभीर है. क्योंकि ये परसेप्शन का बैटल यानी धारणाओं की लड़ाई है. ऐसे में एक माहौल बनाने की कोशिश है
(साभार BBC हिंदी)