रामचंद्र गुहा द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि बीते नवंबर में केंद्रीय गृहमंत्री ने नयी दिल्ली में इतिहास को सही तरीके से पेश करने की जरूरत पर जोर दिया था. डेढ़ सौ साल तक राज करने वाले 30 घरानों पर अनुसंधान करने और आजादी के लिए संघर्ष करने वाले 300 विशिष्ट लोगों पर काम करने की जरूरत उन्होंने बतलायी थी. केंद्रीय गृहमंत्री की अपील पर सबसे त्वरित प्रतिक्रिया इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च (ICHR) ने दी. तीन हफ्ते के रिकॉर्ड समय में एक प्रदर्शनी लगायी गयी जिसका शीर्षक था- मध्यकाल का गौरव: अनछुई भारतीय विरासत, 8 से 18वीं सदी. इस प्रदर्शनी में चोल, काकात्या, मराठा और विजय नगर के शासकों को जगह मिली लेकिन किसी भी मुस्लिम शासक या वंश को स्थान नहीं दिया गया.
गुहा लिखते हैं कि सरकारी निकाय के तौर पर ICHR की राजनीतिक प्राथमिकताएं हमेशा से रही हैं. जब कांग्रेस सत्ता में थी तो इस पर वाम राष्ट्रवादी लोगों का प्रभाव था. फिर भी देश के प्रमुख इतिहासकार यूनिवर्सिटी सिस्टम से निकले हुए लोग थे, जिनके सान्निध्य में लेखकों ने काम किया. पुस्तकें लिखी गयीं, लेख लिखे गये. ये लोग इतिहासकार थे. चंद लोग मार्क्सवादी थे, सभी लोग नहीं.
आज के हिंदुत्ववादी नजरिए से लेखन करने वालों को देखें तो वे दिखाना चाहते हैं कि प्राचीन काल में भारत दुनिया में सबसे आगे था. मध्यकाल में उनकी कोशिश होती है कि मुस्लिम नाम वाले शासकों और योद्धाओं को दुष्ट के रूप में पेश करें, जबकि हिंदू नाम वालों को आदर्श बताया जाए. आधुनिक काल में हिंदुत्व इतिहासकारों से अपेक्षा रखता है कि वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आजादी के संघर्ष में भूमिका को नये तरीके से पेश करें. गांधी-नेहरू के बजाए सावरकर और बोस को सामने करें
Courtesy:The Telegraph