बहादुरशाह जफर के पास भी अंग्रेजों से माफी मांग कर ऊंची पैंशन पर जिंदगी खूब मज़े में काटने का विकल्प खुला था। एक उच्च कोटि के शायर वे थे ही तो क्या खुद के नाम के साथ ‘वीर बहादुर’ जैसा कोई तखल्लुस तो चिपका ही सकते थे जिसके लिए उन्हें चित्रगुप्त जैसा फर्जी नाम भी नहीं रखना पड़ता। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया।
आजादी के बाद इस देश ने उन्हें अन्य असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ ही भुला दिया, जबकि यह आजादी उन्हीं के तप, त्याग और आत्म-बलिदान से सम्भव हुई। यह देश उन सबका चिरकाल तक ऋणी रहेगा।
कल 24 अक्तूबर को बहादुरशाह जफर की जयंती मनाई गई, इस अवसर पर Gopal Rathi जी ने उन्हें इन शब्दों के माध्यम से अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये हैं
बहादुरशाह जफर सच्चे देशभक्त ही नहीं, अपने वक्त के नामवर शायर भी थे। उन्होंने गालिब, दाग, मोमिन, जौक जैसे उर्दू शायरों को हौसला दिया। गालिब तो उनके दरबार में शायरी करते ही थे। उन दिनों उर्दू शायरी अपनी बुलंदियों पर थी।
जफर की मौत के बाद उनकी शायरी कुल्लियात-ए-जफर के नाम से संकलित हुई।
वर्ष 1857 में बहादुर शाह जफर एक ऐसी शख्सियत थे, जिनका बादशाह के तौर पर ही नहीं बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के रूप में भी सम्मान था। मेरठ से विद्रोह कर जो सैनिक दिल्ली पहुंचे उन्होंने सबसे पहले बहादुर शाह जफर को अपना बादशाह माना।
बहादुर शाह जफर ने अंग्रेजों की कैद में रहते हुए भी गजलें लिखना नहीं रोका। वे जली हुई तिल्लियों से जेल की दीवारों पर ग़ज़लें लिखते थे। देश से बाहर रंगून में भी उनकी उर्दू कविताओं का जलवा रहा।
उनका जन्म 24 अक्तूबर, 1775 में हुआ था। पिता अकबर शाह द्वितीय की मृत्यु के बाद उनको 18 सितंबर, 1837 में मुगल बादशाह बनाया गया। यह दीगर बात थी कि उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी और मुगल बादशाह नाममात्र का सम्राट रह गया था।
बहादुर शाह जफर को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की भारी कीमत चुकानी पड़ी। उनके पुत्रों और प्रपौत्रों को ब्रिटिश अधिकारियों ने सरेआम गोलियों से भून डाला। अंग्रेजों ने जुल्म की सभी हदें पार कर दीं। जब अंग्रेज बहादुर शाह जफर के सामने थाली में सजाकर उनके बेटों के सिर ले गये तो उन्होंने अंग्रेजों को जवाब दिया कि हिंदुस्तान के बेटे देश के लिए सिर कुर्बान कर अपने बाप के पास इसी अंदाज में आया करते हैं।
अंग्रेज उन्हें बंदी बनाकर रंगून ले गए, जहां उन्होंने 7 नवंबर, 1862 में एक बंदी के रूप में दम तोड़ दिया। उन्हें वहीं दफ्ना दिया गया। आज भी जब कोई देशप्रेमी व्यक्ति तत्कालीन बर्मा (म्यंमार) की यात्रा करता है तो वह जफर की मजार पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देना नहीं भूलता। उनके दफन स्थल को अब बहादुर शाह जफर दरगाह के नाम से जाना जाता है।
मरते दम तक बहादुरशाह जफर को हिंदुस्तान की फिक्र रही। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वे अपने जीवन की अंतिम सांस हिंदुस्तान में ही लें और वहीं उन्हें दफनाया जाए लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा नहीं होने दिया। उनके जैसे कम ही शासक रहे, जो अपने देश को महबूब की तरह चाहते थे। जब उन्होंने रंगून में कारावास के दौरान अपनी आखिरी सांस ली तो शायद उनके लबों पर अपनी ही यह मशहूर गजल कितनी तकलीफ देती रही होगी। अपने वतन से तन्हाई के उन्हीं दिनों में उन्होने लिखा था—
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।
बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।
कह दो इन हसरतों से, कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।
एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिये हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।
दिन ज़िन्दगी के खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।
कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।
कहा जाता है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद जब बादशाह जफर को गिरफ्तार किया गया तो उर्दू जानने वाले एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी ने उन पर कटाक्ष करते हुए कहा—”दम में दम नहीं, अब खैर मांगो जान की ए जफर, अब म्यान हो चुकी है, शमशीर हिन्दुस्तान की!’
इस पर जफर ने करारा जवाब देते हुए कहा था—
‘गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की!’
गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,
तख्त-ए-लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।
(बहादुर शाह जफर के इस शेर का संघियों के परमपूज्य गुरु ने यह कहते हुए “1857 में हिन्दुस्थान के तथाकथित अंतिम शासक ने निम्न गर्जना की थी—’गाज़ियों में जब… हिन्दुस्तान की’ लेकिन आखिर क्या हुआ? सभी जानते हैं वह।…।” खूब मखौल उड़ाया है। (श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड-1, पृष्ठ-121)
रंगून में उन दिनों सुभाषचंद्र बोस ने बहादुर शाह ज़फर की क़ब्र को पूरी इज़्ज़त दिलवाई थी। उन्होंने ज़फर की कब्र को पक्का करवाया। वहाँ कब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी क़ब्र के सामने चारदीवारी बनवाई।
आज दिल्ली में बहादुर शाह जफर मार्ग पर दिल्ली गेट के निकट उनकी स्मृतियां जीवित हैं। यह दिल्ली के बचे हुए 13 ऐतिहासिक दरवाजों में से एक है। यही वह दरवाजा है, जहां अंतिम मुगल बादशाह जफर के दोनों बेटों और एक पोते को अंग्रेजों ने गोली से उड़ाया था।