चुनावों का एक और दौर पूरा हो गया है, और हम भविष्य अनुमान लगाने की कोशिश कर सकते हैं. इसकी शुरुआत हम उस सवाल से कर सकते हैं जो मैंने 2014 के नेशनल इंट्रेस्ट में तब उठाया था जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की शपथ लिये ठीक तीन महीने बीते थे.
वह सवाल था—क्या आपने कभी ऐसा नेता देखा है जिसका मुखौटा उसके चेहरे से इतना ज्यादा मिलता है जितना मोदी का चेहरा अपने मुखौटे से मिलता है?
यह सवाल कोई शब्दों का खेल नहीं था. यह मोदी की राजनीति और उनकी विचारधारा पर एक ठोस टिप्पणी थी कि आप जिस व्यक्ति को देख रहे हैं वह वैसा ही है जैसा आप उसे पाते हैं.
पहले हम ऐसे नेताओं को सत्ता में देख चुके हैं जो अलग-अलग विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे. वे जब विपक्ष में होते थे तब वैचारिक मान्यताओं की बड़ी गंभीरता से चर्चा करते थे लेकिन सत्तातंत्र का हिस्सा बनते ही उन्होंने अपने विचारों में संतुलन स्थापित कर लिए.
एक बार जब आप सत्ता में आ जाते हैं तब आपको अपनी राजनीतिक मान्यताओं का प्रदर्शन कम करना पड़ता है. दक्षिणपंथी खेमे में यह बात अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी पर लागू होती थी.
लोहियावादी वामपंथियों में यह जॉर्ज फर्नांडीस पर, और धुर वामपंथियों में यह भाकपा के इंद्रजीत गुप्ता और चतुरानन मिश्र (एच.डी. देवेगौड़ा की सरकार में मंत्री रहे) पर लागू होती थी.
संविधान, संस्थाएं, और सार्वजनिक पद पर होते हुए सर्वसमावेशी रुख अपनाने की जरूरत ऐसे कारक हैं जो आपको अपनी विचारधारा को परे रखने की प्रेरणा देते हैं. मोदी ने सत्ता में आने के चंद सप्ताह के भीतर ही इस चलन को तोड़ दिया था.
बल्कि उन्होंने इसका प्रदर्शन शायद 2011 में ही कर दिया था जब उन्होंने मुस्लिम नमाज़ी टोपी पहनने से मना करके अपनी राजनीतिक मंशा साफ कर दी थी.
और जब वे सत्ता में आ गए तब इसे हम कई तरह से लागू होते देखने लगे, जो उनकी शासन शैली का केंद्रीय तत्व रहा.
मंत्रिमंडल या संवैधानिक पदों पर या संसद के दोनों सदनों में अपनी पार्टी के सांसद के रूप में मुसलमानों या ईसाइयों को जगह देने की प्रतीकात्मक परंपरा भी धूमिल हो गई. प्रधानमंत्री निवास पर रस्मी इफ्तार पार्टियां भी खत्म हो गईं.
उनके मंत्रियों और पार्टी नेताओं ने इस संकेत को तुरंत समझा. यह शख्स अपनी विचारधारा का पक्का है और वह इसी पर चलेगा, और इसका दिखावा भी करेगा.
सिवाय इसके कि आम तौर पर वह अल्पसंख्यकों के बारे में कोई कड़वी बात शायद ही करता है. इस नियम को विशेष परिस्थितियों में और आम तौर पर चुनाव अभियानों में तोड़ा जाता रहा है. खासकर उन राज्यों में, जहां हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की गुंजाइश है.
अभी-अभी संपन्न हुए चुनावों के नतीजे चूंकि हमें यह अनुमान लगाने का मौका दे रहे हैं कि अगले 16 महीनों में भारतीय राजनीति किस दिशा में जाएगी, इसलिए यह आकलन करना महत्वपूर्ण होगा कि क्या इस तौर-तरीके से मोदी को लाभ हुआ है?
क्या वे इसे आगे भी जारी रखेंगे? अगर नहीं, तो क्या वे नरम रुख अपनाएंगे, या इसे और मजबूती से जारी रखेंगे?
मोदी की चुनावी राजनीति अब तक इतनी शानदार रूप से सफल रही है कि इस तरह के सवाल उठाना अपने को महामूर्ख घोषित करवाने का जोखिम ही मोल लेना है.
लेकिन अपनी पूरी विनम्रता से हमें कुछ सवाल तो उठाने ही चाहिए.
भाजपा-आरएसएस की विचारधारा के दो पहलू हैं— राष्ट्रवाद और हिंदुत्ववाद. पहले पहलू की चुनावी उपयोगिता पर तो बहुत बहस नहीं है.
हम देख चुके हैं कि पुलवामा-बालाकोट मुद्दे ने 2019 के चुनाव को किस तरह नाटकीय और जबरदस्त मोड़ दे दिया था. उनको लेकर सवाल उठाने वालों को मतदाताओं ने सजा दे दी थी.
लेकिन वह राष्ट्रीय चुनाव था. हम निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते कि हिंदुत्ववाद ने किसी राष्ट्रीय चुनाव में ऐसी निर्णायक भूमिका निभाई है; या राष्ट्रवाद अथवा हिंदुत्ववाद ने राज्यों के चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाई है.
इसका सबसे ताजा प्रमाण तो यही है कि ये मुद्दे हिमाचल प्रदेश में नहीं चल पाए, जहां हिंदू बहुमत में हैं और कई परिवार ऐसे हैं जो सेना से जुड़े रहे हैं और जिनमें भाजपा/आरएसएस की जड़ें गहरी हैं.
लेकिन राष्ट्रीय स्तर के अपने सबसे कमजोर प्रतिद्वंद्वी से मुक़ाबले में भी भाजपा अपनी सरकार के प्रति विरोधी भावना को काट नहीं पाई.
अगर उसकी हार एक मजबूत क्षेत्रीय दल (मसलन पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरीखी पार्टी) के हाथों में होती तो मामला अलग होता.
लेकिन इस हार ने तो 2018 के बाद 92 फीसदी चुनावों में कांग्रेस को हराने के भाजपा के रिकॉर्ड को तोड़ दिया. मोदी का चेहरा वहां नहीं चल पाया और राष्ट्रवाद अथवा हिंदुत्ववाद मुद्दे नहीं बन पाए. इसलिए यह एक सामान्य चुनाव बन गया.
दिल्ली में एमसीडी के चुनाव में उनकी पार्टी ने आंतरिक बिखराव और भ्रष्ट कामकाज के रेकॉर्ड के साथ कदम रखा. उसने ‘आप’ से मुक़ाबला करने के लिए एजेंसियों का इस्तेमाल करके भारी भ्रष्टाचार की कहानी गढ़ी, जो कारगर नहीं रही.
केवल मोदी के नाम के बूते हवा नहीं पलटी जा सकी, और विचारधारा भी बेअसर रही. इसने ‘आप’ को मौका दे दिया कि वह चुनाव को भलस्वा और गाज़ीपुर में मलबे के पहाड़ों जैसे स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित कर दे.
2014 में मोदी की भारी जीत के बाद से यह सिलसिला राज्य-दर-राज्य चलता रहा है. जब भी चुनाव क्षेत्रीय या स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है, भाजपा के लिए बड़ी चुनौती खड़ी हो जाती है.
समय गुजरने के साथ यह चुनौती ज्यादा गंभीर होती गई है, और उनकी अपनी पार्टी के क्षेत्रीय नेता कमजोर पड़ते गए हैं.
यह 2023 में उनके लिए चिंता का कारण है. क्या वे और उनकी पार्टी कर्नाटक, मध्य प्रदेश, और तेलंगाना के चुनावों को राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित कर पाएगी? अगर राहुल ज़्यादातर समय अलग रहेंगे, तब भी मोदी के नाम पर वोट हासिल करना कठिन होगा.
मोदी बनाम मोदी की टक्कर का माहौल नहीं रहेगा तो यह उनके लिए भारी मुश्किल की स्थिति होगी. तब वे क्या करेंगे? क्या हिंदुत्ववाद के किसी और उग्र रूप को उभारेंगे? और क्या उग्र राष्ट्रवाद को भी किसी तरह उभारने की जुगत करेंगे?
अगले वर्ष मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती राजनीति को स्थानीयता से अलग करने की होगी. आम जुमले. फीके पड़ रहे हैं, ‘डबल इंजन की सरकार’ जैसे जुमले कारगर नहीं साबित हो रहे हैं.
जरा सोचिए कि कर्नाटक में इस जुमले के कारगर होने की कितनी संभावना है. क्या मोदी वहां मुख्यमंत्री बोम्मई के कामकाज पर वोट मांग सकते हैं?
और ऐसा लगता है कि विपक्ष के ‘सत्तर साल के कुशासन’ वाले जुमले की ‘एक्सपायरी डेट’ भी आ चुकी है. आप सत्ता में सात साल रह चुके हों तब भी यह आपके लिए कारगर साबित नहीं हो सकता.
हिंदुत्ववाद के आपके सबसे बड़े मिशन, अनुच्छेद 370 और राम मंदिर पूरे हो चुके हैं. अब यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा रह गया है और भाजपा नेता इसका खूब शोर मचा रहे हैं.
लेकिन हम कह नहीं सकते कि इस मुद्दे में वैसा ही आकर्षण है या नहीं जैसा मंदिर या कश्मीर के मुद्दों में था. वैसे भी, तीन तलाक का मसला तय कर दिया गया है. सो, बचा रह जाता है उग्र-राष्ट्रवाद का मुद्दा.
वैश्विक और क्षेत्रीय वास्तविकताएं इतनी बदल चुकी हैं कि अब नये सिरे से राष्ट्रवादी भावना को जगाने में नयी अटकलें पैदा हो गई हैं.
पाकिस्तान कुछ तो अपनी आंतरिक उथलपुथल, सैन्य और आर्थिक कमजोरियों के कारण, और कुछ यूक्रेन युद्ध के कारण पश्चिमी देशों की उपेक्षा तथा ताकतवर सहयोगी चीन की उदासीनता के कारण बेदम पड़ा है.
इसके बावजूद आप अपनी उंगली उठाकर पाकिस्तान के साथ विवाद को भड़का सकते हैं. लेकिन क्या आप सचमुच ऐसा करना चाहेंगे जबकि चीन लद्दाख में आकर बैठा हुआ है?
चीन की ओर से राष्ट्रवादी चुनौती जरूर है लेकिन इस मसले पर इतनी सावधानी बरती जा रही है कि केवल विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री ही कभी-कभार कुछ बोल सकते हैं और वह भी बेहद कूटनीतिक तथा सहमे लहजे में.
प्रधानमंत्री तो चीन का नाम तक नहीं लेते मानो उन्होंने कोई अपराध किया हो. वैसे, उन्होंने लीक से हट कर बाली में शी जिनपिंग से बातचीत शुरू की.
चीन कोई पाकिस्तान नहीं है. आप उसके साथ कुछ या कुछ भी शुरू नहीं कर सकते, और अपनी जीत का ऐलान करने का आपको आधा-अधूरा मौका भी नहीं दिया जाएगा.
पुलवामा-बालाकोट जैसा कांड भी नहीं कर सकते जिसमें दोनों पक्ष अपनी-अपनी जनता के सामने यह दावा कर सकें कि जीत उनकी हुई है; और मामला रफादफा हो जाए.
तो इस तरह हम फिर उसी सवाल पर आते हैं जिससे इस लेख की शुरुआत की थी, नरेंद्र मोदी और उनकी विचारधारा के सवाल पर.
पिछले आठ वर्षों ने उन्हें यही सिखाया है कि उनका व्यक्तित्व, उनका चेहरा उन्हें चुनाव जिताता है. उनकी पार्टी में आज ऐसा एक भी नेता नहीं है जिसका मुखौटा उसके मतदाता पहनना चाहते हों, सिवाय योगी आदित्यनाथ के, जो उस मुकाम तक पहुंच सकते हैं. और आरएसएस को तो कोई वोट नहीं देता है.
2024 के लिए उनकी स्थिति अच्छी है क्योंकि वोट उनके नाम पर दिए जाएंगे. हाल के इन चुनावों ने इस बात की पुष्टि की है कि मोदी के नाम और चेहरे ने अपनी पार्टी और उसके संरक्षक आरएसएस को गौण बना दिया है.
एक सर्वशक्तिशाली व्यक्तित्त्व 100 साल से स्वरूप ग्रहण कर रही विचारधारा को सिर्फ वोट खींचने की अपनी छवि के बूते बौना साबित कर रहा है.
लेखक: शेखर गुप्त
(आभार: द प्रिंट)