विचार :हर्षित आनंद
यह मुक़दमा भारत की सत्ताधारी राजनीति के लिए अहम है; इसके किरदार सीधे उस झूठे राष्ट्रवाद की हवा भरते हैं जो इस सरकार की ज़िंदगी और निरंतरता की सांस है। उमर, शरजील, गुलफ़िशा और दूसरे लोग, बिल्कुल ठीक कहा गया है, “हिंदुत्व राज्य के क़ैदी” हैं।
सब कुछ, कुछ ही सेकंड में निपट गया। मेरे कुछ दोस्तों को जो क़ानूनी पृष्ठभूमि से नहीं हैं, यह बेहद चौंकाने वाला लगा—इतनी संक्षिप्त सुनवाई! मगर वकील जानते हैं कि हमारी अदालतों में तक़दीरें ऐसे ही लिख दी जाती हैं—मुक़दमे का नाम/नंबर पुकारा जाता है, फ़ैसला सुनाया जाता है, अगला मामला बुला लिया जाता है। रोज़मर्रा का कामकाज।
लेकिन इस मामले को ख़ारिज करने की अचानक तत्परता तथ्यों की विशेषता से और भी उभर आई। उन कुछ सेकंडों पर पाँच साल से अधिक का बोझ था। यह मुक़दमा, जब भी यह दुःस्वप्न ख़त्म होगा, क़ानून की कक्षाओं में भारत के “जिम क्रो युग” के सबसे स्थायी सबूत के तौर पर पढ़ाया जाएगा।छह अभियुक्त पहले ही बिना मुक़दमा चले पाँच साल से ज़्यादा जेल में बिता चुके हैं। आरोप तय करने की दलीलें तक पूरी नहीं हुईं। अगर मुक़दमा शुरू भी हो तो तक़रीबन 700 गवाहों से जिरह करनी होगी। ये तथ्य ही ज़मानत के लिए काफ़ी हैं; कोई भी ज़िम्मेदार संवैधानिक अदालत केस की बारीक़ियों में उलझने की ज़रूरत नहीं समझेगी। मगर यह मुक़दमा भारत की सत्ताधारी राजनीति के लिए अहम है; इसके किरदार सीधे उस झूठे राष्ट्रवाद की हवा भरते हैं जो इस सरकार की ज़िंदगी और निरंतरता की सांस है। उमर, शरजील, गुलफ़िशा और दूसरे लोग, बिल्कुल ठीक कहा गया है, “हिंदुत्व राज्य के क़ैदी” हैं।
ज़मानत ख़ारिज़ करने का आदेश 133 पन्नों का है और चार हिस्सों में बंटा है। उमर और शरजील को साथ रखा गया है। सबसे अहम बात यह है कि अदालत को उनकी लंबी क़ैद का ज़िक्र तक विचलित नहीं करता। ज़रा तुलना कीजिए—शरजील अब तक 2044 दिन जेल में हैं; उमर 1815 दिन से। दिल्ली हाईकोर्ट ने बस अभियोजन की बात जस की तस मान ली और उसकी बेतुकी दलील स्वीकार कर ली कि शरजील और उमर ‘पूरे षड्यंत्र के बौद्धिक शिल्पकार’ थे, जिन्होंने ‘साम्प्रदायिक आधार पर भड़काऊ भाषण देकर मुस्लिम समुदाय के लोगों को बड़े पैमाने पर लामबंद किया’।
इस नतीजे के आधार बताए गए हैं:
(a) व्हाट्सऐप समूहों में संदेशों का निर्माण और आदान-प्रदान;(b) भाषणों में बंद, चक्का जाम और असहयोग का आह्वान;(c) पैम्फ़लेट का वितरण।
हम सोचते रह सकते हैं कि जिस देश ने असहयोग और सविनय अवज्ञा के आदर्शों पर आज़ादी हासिल की, वहाँ ‘जन आंदोलन’ आतंकवाद के आरोप कैसे आमंत्रित कर सकता है? मगर अदालत यह बहस करने का साहस नहीं रखती। वह कार्यपालिका पर भरोसा करती है और शायद मानती है कि राष्ट्र-निर्माण के इस महा-खेल में कुछ नौजवानों का जीवन और स्वतंत्रता बलि चढ़ाना जायज़ सौदा है। यह संविधान की नहीं, बल्कि राज्य की सेवा में खड़ी अदालत है—राजनीतिक सुविधा की ग़ुलाम।गुलफ़िशा के तथ्यों पर अलग से चर्चा की गई। उसने जो व्हाट्सऐप समूह बनाया था उसका नाम था ‘औरतों का इंक़लाब’, जिसका इस्तेमाल ‘प्रदर्शनों से संबंधित जानकारी फैलाने और औरतों को अलग-अलग धरनास्थलों पर जुटाने’ में हुआ। औरतों की यह लामबंदी भी अदालत को संदिग्ध लगी। सबसे विचित्र बात यह रही कि गुलफ़िशा को देवांगना कलीता और नताशा नरवाल (पिंजरा तोड़ की सदस्य, जो अब ज़मानत पर बाहर हैं) जैसी राहत क्यों नहीं दी गई। अदालत का तर्क यह था कि गुलफ़िशा के बनाए समूह ख़ास तौर पर ‘प्रदर्शन समन्वय और अधिक से अधिक औरतों को जुटाने’ पर केंद्रित थे। अगर यह त्रासदी न होती तो इन टिप्पणियों पर हंसी आती।
यह फ़ैसला यह भी पुख़्ता करता है कि भारत में ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम (UAPA) की कहानी अब भी असमान प्रयोग की है—हमेशा एक प्रतिशोधी राज्य द्वारा मनमाने ढंग से लागू। यह भयावह है कि संवैधानिक अदालतें लगातार इस क़ानून के पूर्वग्रहपूर्ण चरित्र को मान लेती हैं और इसकी अनिश्चितता का सहारा लेकर नागरिकों को बरसों जेल में बंद रखती हैं।इस फ़ैसले के बाद क्या कोई कह सकता है कि उसे भारत में क़ानून के समान संरक्षण का अधिकार हासिल है, या कि संवैधानिक अदालतें निष्पक्ष क़ानून के शासन की सख़्ती से रक्षा करती हैं? दिल्ली हाईकोर्ट ने फिर साबित किया है कि हमारी स्वतंत्रता राज्य की दया पर निर्भर है। हर आंदोलन, हर सक्रियता की वैधता का परीक्षण संविधान से नहीं, कार्यपालिका से होता है।
हर बार जब मैं उमर के भाषणों या गुलफ़िशा की कविताओं को पढ़ता हूँ, मुझे लगता है कि यह कोई भी हो सकता था—मैं ख़ुद, या मेरे ऐसे दोस्त जो समानता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामूहिक संघर्ष पर विश्वास रखते हैं। लेकिन जेल में तो उमर, गुलफ़िशा और कुछ गिने-चुने लोग हैं, जो अपनी ज़िंदगी के सबसे उम्दा दौर में क़ैद हैं। यह एक अवर्णनीय क्रूरता है, जिसे हमारी संस्थाओं की मेहरबानी और मिलीभगत से उन पर थोपा गया है।
अगर हम जैसे वकील उमर और दूसरे साथियों के लिए ज़मानत तक नहीं हासिल कर सकते, तो शायद राज्य हमें भी उनके साथ जेल में डाल दे। क्योंकि हम वही मानते हैं जो उमर मानता है, वही समर्थन करते हैं जो वह करता है। यह सिर्फ़ उच्चतम स्तर की एकजुटता और प्रतिरोध ही नहीं होगा, बल्कि उसके साथ जेल बाँटना हमारे लिए सम्मान भी होगा। इस आत्मसमर्पण और पतन के दौर में वे एक राह दिखाने वाले सितारे हैं।
(लेखक पेशे से अधिवक्ता हैंआपसे ईमेल। विचार व्यक्तिगत हैं।) साभार: न्यूजक्लिक