बहुजन समाजवादी पार्टी (बसपा) की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने अब साफ कर दिया है कि वह लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेंगी। हालांकि उन्होंने एक छोटी सी खिड़की जरूर खोल रखी है कि चुनाव बाद वह किसी भी पार्टी से गठबंधन कर सकती हैं। मायावती ने तर्क यह दिया है कि गठबंधन करने पर उनकी पार्टी को बहुत ज्यादा नुकसान होता है। उनके अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा से बीजेपी की बांछें खिल गई हैं। इन्हें पता है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता यूपी होकर जाता है। अगर मायावती अकेले चुनाव लड़ती हैं तो बीजेपी की राह आसान हो सकती है।
मायावती के ताजा-तरीन बयान से उनके इंडिया एलायंस में शरीक होने की उम्मीद खत्म हो गई है। प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने के लिए भी उन्हें ऑफर दिया गया था। उनके अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद इंडिया गठबंधन की कोशिशों को तगड़ा झटका लगा है। अब विपक्षी दलों के नेता आरोप लगा रहे हैं कि बीएसपी बीजेपी की ‘बी’ टीम है। एक वक्त वो भी था जब यूपी को बीएसपी का गढ़ माना जाता था। अब यहां बीएसपी की मौजूदगी तो है, लेकिन उसका प्रभाव तेजी से क्षीण हो रहा है।
यूपी में अब दलित और मुस्लिम समुदायों में यह बात तेजी से फैल रही है कि बीएसपी को वोट देने से बीजेपी को फायदा हो सकता है। यही वजह है कि बीएसपी अपनी ताकत खोती जा रही है। मायावती के समर्थकों के छिटकने की कई वजहें हैं। दलितों को भी अब लगने लगा है कि वह शोषित वर्ग की नेता नहीं, बल्कि स्वेच्छा अथवा मजबूरी में, बीजेपी की मददगार बन गई हैं। कांग्रेस पहले से ही चाहती था कि बीएसपी इंडिया गठबंधन में शामिल हों, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं हुईं।
क्यों बदल लिया चुनावी स्टैंड
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के तत्काल बाद मायावती ने समाजवादी पार्टी के साथ अपने रिश्तों को तोड़ लिया था। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को यूपी में कोई सीट नहीं मिली थी। साल 2019 में बसपा ने सपा के साथ तालमेल की तो लोकसभा में उसकी सीटें दस पर पहुंच गईं, जबकि सपा की सीटें आधी रह गईं। बसपा के मुस्लिम सांसदों का दबाव था कि वह ‘इंडिया’ के साथ मिलकर चुनाव लड़ें, लेकिन मायवती की न जाने कौन सी मजबूरी थी जो उन्होंने अपना स्टैंड बदल लिया।
माना जा रहा है कि विपक्षी गठबंधन में बसपा की अनुपस्थिति यूपी में इंडिया गठबंधन को कमजोर बनाएगी। माना जा रहा है कि कमजोर सिर्फ इंडिया ही नहीं होगा, मायावती भी होंगी। हाल के दिनों में दलितों और मुस्लिमों में जिस तरह मोहभंग की स्थिति बनती जा रही है उससे एहसास होता है कि यूपी में बसपा के पास अब कोई ताकत नहीं बची है। राजनीतिक फलक पर अप्रासंगिक होती मायावती के ताजा-तरीन फैसलों से दलित वोटरों को भी धक्का लगा है। उन्हें लगता है कि मायावती का यह दावा ठीक नहीं है कि अकेले लड़ने पर उनकी पार्टी मजबूत होगी।
सियासी गलियारों में यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि बीएसपी अगर अकेले चुनाव लड़ती है तो वह प्रत्यक्ष रूप से बीजेपी के साथ है और उसकी मदद कर रही है। ऐसे बीजेपी की मुखालफत करने वाले दलित वोटर बंटेंगे। इन वोटरों का एक खेमा सपा-कांग्रेस की तरफ होगा तो दूसरा खेमा बीएसपी के पास। इससे बीजेपी को नफा और इंडिया को नुकसान होगा। पिछले चुनाव में सपा-बसपा ने मिलकर लोकसभा की 15 सीटें जीती थीं। अबकी उन्हें जबर्दस्त नुकसान हो सकता है। मायावती के अकेले चुनाव लड़ने के फैसलों से गैर जाटव दलित- खटिक, धोबी, पासी, दुसाध, पासवान आदि जातियों के वोटरों ने अब दूसरे दलों में अपना भविष्य तलाशना शुरू कर दिया है।
क्या कहते हैं आंकड़े
पिछले संसदीय चुनावों पर नजर डालें, तो पता चलता है कि बसपा ने सपा के साथ जब यूपी में गठबंधन किया तो 80 लोकसभा सीटों में 19.4 फीसदी वोट शेयर के साथ 10 सीटें हासिल की थीं। तीन साल बाद साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ी तो उनकी पार्टी को सिर्फ एक सीट ही मिल पाई। बीएसपी का वोट शेयर गिरकर 13 फीसदी पर पहुंच गया। बीएसपी की जबर्दस्त पराजय के बाद यूपी में बसपा का राजनीतिक कद बहुत छोटा हुआ है। दूसरी तरफ सपा है, जिसने पिछले चुनाव में रालोद के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। भाजपा की लहर के बावजूद 111 सीटें और 32 फीसदी वोटों के साथ उसे जबर्दस्त चुनौती दी।
सियासी गलियारों में इस बात की भी चर्चा है आय से अधिक संपत्ति को लेकर मोदी सरकार ने माया पर मजबूत शिकंजा कस रखा है। ऐसे में बीजेपी का साथ देना उनकी मजबूरी है।