शीतल पी सिंह-
हिंदी पट्टी के विश्वविद्यालयों के कैंपसों में लंबे समय से जाति युद्ध एक गंभीर सामाजिक बीमारी की तरह पनपा। राजनीति के सरलीकरण के प्रणेताओं/तमाम दलों ने इसे सींचा और भुनाया। बीमारी की जड़ में हमारी अल्पविकसित अर्थव्यवस्था का कैपिटलिस्ट मॉडल था जो अपनी आबादी के नौजवानों को रोजगार में लगाने की जगह मुनाफा कमाने की होड़ में लगी रही। इसके चलते सीमित रोजगार की संभावनाओं पर क़ब्ज़े की जंग में हमारी जातियों में विभाजित आबादी अपने अपनों की नियुक्ति की तिकड़मों में सड़ गई।
ऐसा विद्रूप पैदा हुआ कि मीडिया, न्यायालय, सेक्रेटेरिएट, विश्वविद्यालय की फैकल्टियां, संसद/ विधानसभाओं और नेतृत्व इकरंगी होते चले गए और महामारी में बदल गए।
जाति-व्यवस्था की सबसे ऊपरी पायदान पर होने की वज़ह से ब्राह्मण समुदाय का इन मंचों पर आज़ादी के बाद के कई दशकों तक एकाधिकार सा हो गया। राजनीति के अलावा बाकी क्षेत्रों में कायस्थ इन्हें कुछ हिस्सा बांटने पर मजबूर करते थे और संविधान की व्यवस्थाओं में दलितों आदिवासियों को भी एक सीमित हद तक प्रतिनिधित्व मिला। जब प्रिवी पर्स ख़त्म हुए तब राजपूत भी इन मंचों पर सक्रिय हुए। ज़मीन के बड़े हिस्सेदार होने की वज़ह से कई जगह वे ब्राह्मणों कायस्थों के आमने-सामने आ गए। आधी से अधिक आबादी के पिछड़ी जातियों को यह मौका मंडल कमीशन ने उपलब्ध कराया।
चूंकि स्थान आबादी के अनुपात में बढ़ नहीं सके तो नौकरियों और प्रभावशाली राजनीतिक हिस्सों पर जंग लगातार कड़वी होती चली गई।
अब हालात ये हैं कि पहले लगभग सभी जगहों पर प्रचंड बहुमत में रहने वाले ब्राह्मण समुदाय के मीडिया और न्यायपालिका में काबिज प्रतिनिधियों को बदलाव की यह हलचल बेचैन रखती है। सामुदायिक संकीर्णता और कठोर होती जा रही है और विवाद विवेक की जगह धूर्तता से हल करने की कवायदें जोर पकड़ चुकी हैं। इस अभियान में सबसे पहले अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया और फिर पहले से समर्थ और बाद में समर्थ होती जातियों के स्वयंभू प्रतिनिधियों के बीच जंग आमने-सामने है।
कुछ दशक पूर्व तक उत्तर प्रदेश के सचिवालय की चौथी श्रेणी की नौकरियों तक में सवर्णों (अधिकतर ब्राह्मणों) का बहुमत था क्योंकि आजादी के बाद करीब पचास बरस में प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा समय तक वे ही मुख्यमंत्री रहे। उत्तर प्रदेश में चतुर्थ श्रेणी में तमाम भर्तियां शुरुआत में सिर्फ उत्तराखंड के नागरिकों से भर ली गईं थीं क्योंकि मुख्यमंत्री उसी मूल के थे। यानि जाति के अलावा क्षेत्रीयता भी एक कारक रहा।
हाल ही में उत्तर प्रदेश मूल के दो ब्राह्मण समुदाय के पत्रकारों पर राज्य सरकार ने FIR दर्ज़ करवाई है, उन पर आरोप है कि उन्होंने ठाकुर समाज के अफसरों को प्रमुख पदों पर तैनाती में प्राथमिकता देने की लिस्ट जारी की है और तुलना यादव समाज से की है। खुद अपने ब्राह्मण समुदाय पर वे मौन रहे।
उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री ठाकुर हैं और इनके पहले अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे। इसके जवाब में ठाकुर समाज और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व करते सोशल मीडिया हैंडल्स ने प्रमुख पदों पर ब्राह्मणों की भागीदारी की लिस्ट जारी की हैं और उपरोक्त पत्रकारों के दावों का निषेध किया है।
दरअसल हमारी पत्रकार बिरादरी की ऐसी तिकड़मी सोच का परिदृश्य हमारे न्यूज़रूम्स के गठन में सड़ रहा है।
हमारे न्यूज़रूम्स कुल पंद्रह फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व रखते हैं, अधिकांश ब्राह्मण भूमिहार कायस्थ और ठाकुरों से अटे पड़े हैं। दलित पिछड़े अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधि यहां नदारद हैं। इसलिए हमारा मीडिया दुनिया में सबसे घटिया किस्म की पत्रकारिता करने और ताकतवर की चाटुकारिता करने का क्रमांक पाता है। यह जनविरोधी है और सत्ता की दलाली में खुश रहता है, कभी-कभी ऊपर वर्णित मुद्दों पर भी लड़ता भिड़ता है जिसके पीछे भी केंद्र और राज्य के सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रमुखों के आपसी झगड़े प्रमुख कारक होते हैं।
दुर्भाग्यवश हम आप सूचनाओं के लिए ऐसे ही करप्ट स्रोतों पर निर्भर हैं!