पी. चिदंबरम
तथ्यों की जांच करना गंभीर काम होता है। इसमें निष्पक्ष समझ, व्यापक अध्ययन, गहन शोध और अकादमिक साख की जरूरत होती है। तथ्यों की जांच-परख का काम उफनते पानी में से मछलियां निकालने या जायज गलतियों का लाभ ले लेने जैसा नहीं होता। तथ्यों की जांच करना जुएं निकालने जैसा काम भी नहीं है। इसके प्रकाशन के लिए किसी को भी पैसा मिलना चाहिए। तथ्यों को जांचना कोई इंस्पैक्टर का काम भी नहीं है, यह पत्थरों में से हीरे निकालने और पत्थरों को पहचान देने जैसा काम है।
मेरे सामने दो आकर्षक पुस्तिकाएं और कई परचे रखे हैं, जिनका शीर्षक है- ”एट इयर्स: सेवा, सुशासन, गरीब कल्याण”। भारत सरकार ने 2014 से अब तक की अपनी आठ साल (जो 31 मई, 2022 को पूरे हुए) की उपलब्धियों वाली चिकने कागजों की ये पुस्तिकाएं जारी की हैं।
मेरी समझ में उपलब्धियों का मतलब तथ्यों से है। सरकार ने जो हकीकत में किया है। यह बहस करना मूर्खता होगी कि आठ सालों में कुछ नहीं हुआ।
कोई भी सरकार जो पर्याप्त अवधि तक सत्ता में रहती है और जनता का पैसा खर्च करती है, उसके खाते में कुछ तो उपलब्धियां होंगी। उदाहरण के लिए, मेरा लंबे समय से मानना रहा है कि अगर कोई सरकार जान-बूझ कर नुकसान नहीं करती, तो भारत की जीडीपी पांच फीसद सालाना की दर से इसलिए बढ़ेगी, क्योंकि कृषि निजि क्षेत्र में है, ढेरों सेवाएं निजी क्षेत्र में हैं और विनिर्माण क्षेत्र का भी अच्छा-खासा हिस्सा निजी क्षेत्र में है। जो सरकार कम काम करती है या कुछ नहीं करती, वह नुकसान थोड़ा ही कर सकेगी। यह सिर्फ तभी होता है जब कोई सरकार सक्रिय रूप से नुकसान पहुंचाती है जैसे नोटबंदी, जिसने देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया।
सक्रिय रूप से नुकसान पहुंचाने के मोदी सरकार के कई और भी उदाहरण हैं। मैं इरादों पर सवाल नहीं उठा रहा हूं, मैं बचाव में जिद और प्रामाणिक रूप से गलत नीतियों पर डटे रहने पर सवाल उठा रहा हूं। जीएसटी कानून ऐसी ही एक नीति है, जिसमें पैदाइशी दोष हैं। दूसरा, चुनावी बांड है, जिसने उद्योगपतियों को किसी पार्टी से गठजोड़ करने और फिर उस पार्टी के जरिए चुनाव के पहले और बाद में सरकार के गठन को प्रभावित करने की इजाजत दे दी है।
ताजा उदाहरण अग्निपथ का है। आने वाले दिनों में हम महसूस करेंगे कि इस योजना ने भारतीय सेना (जिसमें नौसेना और वायुसेना भी हैं) को ठेके के जवानों की सेना में तब्दील कर दिया है, जिसमें युद्ध लड़ने और बलिदान देने की कम ही इच्छा होगी।
हालांकि इस लेख का विषय साधारण-सा ही है। पुस्तिकाओं और परचों में किए गए दावे कितने सच हैं? ऐसे विज्ञापन छाप कर क्या झूठे और गुमराह करने वाले दावे जानबूझ कर की गई कोशिश हैं? यहां कुछ नतीजे पेश हैं, जो विभिन्न स्रोतों के जरिए तथ्यों की जांच करके निकाले गए हैं।
प्रचार के बाद
दावा: सारी शहरी आबादी को वर्ष 2022 तक वहनयोग्य आवास मुहैया करवाने के लिए वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) शुरू की गई थी। जरूरत का आकलन करने के बाद, मंत्री के अनुसार एक करोड़ पंद्रह लाख घरों की मंजूरी दी गई थी, सत्तर लाख घर बन गए, और छियालीस लाख घर लाभार्थियों को सौंप दिए गए गए।
तथ्य: अट्ठावन लाख उनसठ हजार घर बन चुके थे। 31 मार्च 2022 के बाद योजना को बढ़ाया नहीं गया। भारत के शहरों और कस्बों में लाखों लोग बिना घर के सड़कों पर हैं और होंगे।
दावा: 99.99 फीसद घरों में बिजली पहुंचा दी गई।
तथ्य: नीति आयोग के साथ मिल कर स्मार्ट पावर इंडिया ने एक सर्वे करवाया, जिसमें यह उजागर हुआ कि देश की तेरह फीसद आबादी ऐसी है जो बिजली के लिए ग्रिड के इतर दूसरे स्रोतों का इस्तेमाल करती है या फिर बिजली ही इस्तेमाल नहीं करती। जिस दिन प्रधानमंत्री ने (म्यूनिख में) दावा किया कि ‘सारे गांवों में बिजली पहुंच चुकी है’, मीडिया ने खबर दी कि राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के पैतृक गांव में बिजली पहुंचाने के लिए युद्धस्तर पर काम किया जा रहा है!
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस 5) के अनुसार 2015-16 में अट्ठासी फीसद आबादी के पास घरों में पहले ही से बिजली थी। मोदी सरकार ने इसमें 8.8 फीसद की और बढ़ोतरी कर इसे 96.8 फीसद पर पहुंचा दिया। इस बात को स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि अब भी कई गांवों और दूरदराज की बस्तियों में बिजली पहुंचाने का काम बाकी है और बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं, जिनके पास बिजली नहीं है।
सच से परे
दावा: चार हजार तीन सौ इकहत्तर शहरों को खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया गया। स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के तहत स्वच्छता सौ फीसद तक हो गई। ग्यारह करोड़ से ज्यादा परिवारों ने शौचालय बनवाए।
तथ्य: साउथ एशियन लेबर नेटवर्क के 2021 में करवाए गए सर्वे में पता चला कि अब भी पैंतालीस फीसद लोग खुले में शौच जा रहे हैं।
सर्वे में यह भी सामने आया कि जो बारह लाख शौचालय बना दिए जाने की बात की जा रही थी, वे वास्तव में बने ही नहीं थे। खुले में शौच मुक्त घोषित किए गए चार हजार तीन सौ इकहत्तर शहरों में से सिर्फ एक हजार दो सौ छिहत्तर शहर ही ऐसे रहे, जहां स्वच्छता और शौचालयों में पानी की सुविधा थी।
दावा: भारत 2022 तक कुपोषण मुक्त हो जाएगा। हथियार: पोषण तक पहुंच। मिशन: पोषण। नतीजा: उचित पोषण सुनिश्चित करने के लिए एक लाख इक्यासी हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च कर दिए गए।
तथ्य: राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वे-5 और बुरी खबर लेकर आया। पंद्रह से उनचास साल आयुवर्ग वाली महिलाओं में सत्तावन फीसद महिलाएं खून की कमी से ग्रस्त निकलीं। छह से तेईस महीने आयुवर्ग वाले शिशुओं में 11.3 फीसद को ही पर्याप्त खुराक मिल पाई। कम वजन (32.1 फीसद), कम लंबाई (35.5 फीसद) और कमजोर फेफड़े (19.3 फीसद) वाले बच्चों का अनुपात भी काफी ज्यादा है।
इन पुस्तिकाओं में कुछ ऐसे दावे हैं, जो सही हैं और कुछ ऐसे जो सच्चाई के करीब हैं, वे कुछ अतिशयोक्ति पैदा करते हैं, लेकिन कई ऐसे हैं जो सिर्फ शेखी हैं। ऐसी शेखी बघारने वाली सारी सरकारें गुनहगार होती हैं, लेकिन यह सरकार इससे भी ऊपर निकल चुकी है और कभी भी किसी खामी को स्वीकार नहीं करती। मुझे हैरी ट्रूमैन के समझदारी वाले ये शब्द याद आते हैं: ”भरोसा करो, पर पहले सच्चाई जान लो”।