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उमर खालिद और अन्यः इतिहास दर्ज करेगा, यह साजिश थ्योरी कितनी बेतुकी थी

RK News by RK News
September 7, 2025
Reading Time: 1 min read
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योगेंद्र यादव
(उमर खालिद और अन्य एक्टिविस्ट का मामला भारत में असहमति को दबाने का जीता जागता उदाहरण है। बिना सबूत के लंबी हिरासत इंसाफ और मानवाधिकारों को कमजोर कर रहा है। जाने माने चिंतक योगेंद्र यादव की टिप्पणीः)
सब याद रखा जाएगा!
आमिर अज़ीज़ की वो अमर पंक्तियाँ होंठों पर थरथराती हैं- “सब याद रखा जाएगा।”

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दिल्ली हाईकोर्ट का फ़ैसला पढ़ते हुए, जिसमें दिल्ली दंगों की तथाकथित “साज़िश” केस के नौ अभियुक्तों को ज़मानत से वंचित कर दिया गया, दिल पर जैसे कोई गहरी चोट सी लगती है। ज़ेहन में उमर खालिद की साथी बनोज्योत्स्ना और ख़ालिद सैफ़ी की पत्नी नर्गिस के चेहरे कौंधते हैं—उनके परिवार, उनकी बेचैनी, उनका अकेलापन।

और तभी, याद आता है जनवरी 2020 का भिवंडी। तारों से जगमगाता आसमान, और ज़मीन पर एक लहराता समंदर—लाख से ज़्यादा लोग। उस समंदर के बीच खड़े थे उमर खालिद। उनके शब्द तर्क से भरे थे, जज़्बे से लबालब, और इंसाफ़ की पुकार से गूंजते हुए। उन्होंने “इंक़िलाबी इस्तक़बाल” के साथ भाषण की शुरुआत की और भगत सिंह, अंबेडकर और गांधी को याद करते हुए अहिंसा के रास्ते पर इस काले, भेदभावी और संविधान-विरोधी क़ानून के ख़िलाफ़ लड़ने का आह्वान किया।
वही भाषण, वही जज़्बा, जिसने अमरावती में भी भीड़ को झकझोरा था। लेकिन अब वही शब्द अदालत की नज़र में “साम्प्रदायिक भड़काऊ भाषण” ठहराए जा रहे हैं।
जब उन्होंने अपने भाषण का समापन किया, तो सबको अपने मोबाइल की रोशनी जलाने और साथ में आज़ादी के नारे लगाने के लिए कहा। और फिर गूंज उठा पूरा मैदान:
हम क्या चाहें?- आज़ादी!
CAA से आज़ादी!
भूख से आज़ादी!
आंबेडकर वाली आज़ादी!

उस पल, पूरा स्टेडियम जैसे किसी साझा धड़कन में तब्दील हो गया था। यह आज़ादी किसी से छुटकारे की नहीं थी—यह बराबरी की नागरिकता की मांग थी। यह अपनापन पाने की आज़ादी थी। यह सह-अस्तित्व को गले लगाने वाली आज़ादी थी। वो लम्हा कभी भुलाया नहीं जा सकता—जैसे आसमान में सारे तारे झिलमिला रहे हों और बीचोंबीच सबसे उज्ज्वल सितारा चमक रहा हो। वही सितारा जिसकी भारत को ज़रूरत है। वही नेता जिसका मुसलमान बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं।

लेकिन जब मैं अदालत के इस थका देने वाले, उलझे हुए तर्क पढ़ता हूँ, तो लगता है जैसे एक-एक करके वो सारे तारे बुझते जा रहे हों। और तब फिर लौटता हूँ अमीर अज़ीज़ की पंक्तियों की ओर- दिलासा पाने, उम्मीद बाँधने:
“तुम रात लिखो, हम चाँद लिखेंगे/
तुम जेल में डालो, हम दीवार फाँद लिखेंगे।”
इतिहास इस 133 पन्नों के फ़ैसले को किस नज़र से देखेगा? क़ानूनविद गौतम भाटिया पहले ही इस मुक़दमे को अदालतों के “आँखें मूँद लेने” वाले रवैये का उदाहरण बता चुके हैं, जहाँ न्यायालय अभियोजन के “स्टेनोग्राफ़र” की भूमिका में नज़र आते हैं। उन्होंने इसे मॉस्को ट्रायल जैसा करार दिया, जहाँ साज़िश का ढांचा अनाम और अप्रमाणित गवाहों की बातों पर खड़ा किया गया है, और जो कमियाँ रह गईं, उन्हें अदालत ने अपनी धारणाओं और अटकलों से भर दिया।
यह फ़ैसला भी शायद उसी बदनाम ADM जबलपुर केस के साथ रखा जाएगा- इस बात की मिसाल के तौर पर कि न्याय क्या नहीं होता।

कभी न कभी, कोई इतिहासकार ज़रूर दर्ज करेगा कि यह पूरी “साज़िश” थ्योरी कितनी बेतुकी थी-जिसने पीड़ितों को अपराधी बना दिया और अहिंसक प्रदर्शनकारियों को षड्यंत्रकारी। यह थ्योरी मानो किसी घटिया फ़िल्म की पटकथा हो। सोचना ही कितना विचित्र है कि उमर खालिद, जो 2018 से पुलिस की चौबीसों घंटे निगरानी में थे, कोई हिंसक साज़िश रच सकते थे! और वो भी व्हाट्सऐप ग्रुप पर- जहाँ सौ से ज़्यादा लोग जुड़े थे। और ऊपर से यह दावा कि मुसलमान कार्यकर्ताओं ने हिंसा करवाई और उसका शिकार भी ज़्यादातर मुसलमान ही हुए!
मैं इस केस को निजी तौर पर भी जानता हूँ। उमर खालिद और ख़ालिद सैफ़ी, दोनों को मैंने CAA-विरोधी आंदोलन में करीब से देखा और जाना है। उमर को जिसने भी जाना है, वह जानता है कि उनके भीतर साम्प्रदायिकता की ज़रा-सी छाया नहीं है। वे आंदोलन के वैचारिक दूत थे, दिल्ली से ज़्यादातर बाहर, धरनों से काफ़ी दूरी पर। और ख़ालिद सैफ़ी- जो हिंदू और मुसलमान दोनों में उतने ही प्रिय थे- हमेशा इस चिंता में डूबे रहते कि कहीं धरने टकराव या हिंसा की ओर न मुड़ जाएँ। उन पर हिंसा का आरोप लगाना, न्याय का मज़ाक है।

अगर उमर इसलिए जेल में हैं कि उन्होंने कहा CAA मुसलमान-विरोधी है, तो मुझे भी जेल में होना चाहिए। अगर ख़ालिद इसलिए बंद हैं कि उन्होंने धरनों का समन्वय किया, तो मुझे भी सलाखों के पीछे होना चाहिए। दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में मेरा नाम भी षड्यंत्रकारियों में लिखा गया था, जैसे मैं कोई फ़िल्मी खलनायक हूँ। जजों को सोचना चाहिए था- अगर पुलिस अपनी थ्योरी पर यक़ीन करती है, तो पाँच साल में मुझे एक बार भी पूछताछ के लिए क्यों नहीं बुलाया गया?
इतिहास शायद सबसे ज़्यादा इस केस के अजीबो-ग़रीब संयोगों को याद रखेगा। एक ज़मानत अर्जी, जिसे एक हफ़्ते में निपट जाना चाहिए था, महीनों तक लटकी रही। दो जजों ने सुनवाई पूरी कर आदेश सुरक्षित रख लिया, मगर फ़ैसला दिए बिना ही दूसरे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनकर चले गए। और अब यह ताज़ा फ़ैसला भी जस्टिस शालिंदर कौर ने रिटायरमेंट से तीन दिन पहले सुनाया।

इतिहास यह भी दर्ज करेगा कि अदालत ने उमर खालिद के भाषणों में “भड़काऊपन” खोज निकाला, मगर उन्हें यह साफ़-साफ़ दिखने वाले नफ़रती भाषण नज़र नहीं आए- रागिनी तिवारी के, प्रदीप सिंह के, यति नरसिंहानंद के, और कपिल मिश्रा व अनुराग ठाकुर जैसे माननीय मंत्रियों के।
इतिहास यह भी लिखेगा कि पाँच साल से ज़्यादा बिना मुक़दमा शुरू हुए जेल में रखे गए इन लोगों को ज़मानत नहीं मिली, जबकि बलात्कार के दोषी गुरमीत राम रहीम को आठ साल में चौदह बार जेल से बाहर आने दिया गया। और शायद यह केस नौ अभियुक्तों का मुक़दमा नहीं, बल्कि भारत की पूरी न्याय-व्यवस्था का मुक़दमा बन जाएगा। और इतिहास का फ़ैसला कठोर होगा।

और आख़िर में- न्यायालय का एक “दयालु” आश्वासन। पाँच साल की लंबी क़ैद और मुक़दमे की कछुए-सी चाल पर अदालत हमें तसल्ली देती है कि केस “प्राकृतिक गति” से आगे बढ़ रहा है। और यह चेतावनी भी देती है कि जल्दी मुक़दमा चलाना अभियुक्तों और राज्य दोनों के लिए “हानिकारक” होगा।
ऐसे में शायर की आवाज़ ज़्यादा सच्ची लगती है:
*“ *तुम अदालतों में बैठकर चुटकुले लिखो/
हम सड़कों, दीवारों पर इंसाफ़ लिखेंगे।”**
(योगेंद्र यादव का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस से साभार)

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