पिछले तीन दशकों से गुजरात में भले ही भाजपा का एकछत्र राज चल रहा हो, लेकिन राज्य की राजनीतिक डगर बहुत टेढ़ी है। इस टेढ़ी डगर पर सीधे चलने के लिए भाजपा ने ऐसा अलार्म सेट कर रखा है, जो चुनावों से करीब एक साल पहले सक्रिय हो जाता है, और दिल्ली में बैठे हाईकमान से कहने लगता है कि अब गुजरात का मुख्यमंत्री बदलने का वक्त आ गया है।
सत्ता में बने रहने के लिए इसे भाजपा का वर्किंग ऑफ स्टाइल कहिए या इंकम्बेंसी खत्म करने की तरीका… लेकिन पिछले कई दशकों से भाजपा इसी राह पर चलती आ रही है, और इस बार इस राह के सारथी फिलहाल भूपेंद्र पटेल हैं, जो मौजूदा मुख्यमंत्री हैं।
भूपेंद्र पटेल से पहले राज्य की कमान विजय रुपाणी संभाल रहे थे, जनता की नज़रों में सबकुछ ठीक भी चल रहा था, लेकिन अचानक ख़बर आती है मुख्यमंत्री विजय रुपाणी अपने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे रहे हैं। पद छोड़ने के बाद जब रुपाणी से सवाल हुए तब उन्होंने कहा कि ‘भाजपा की परंपरा’ है और पार्टी सभी कार्यकर्ताओं को बराबरी से मौके देने पर भरोसा करती है। ख़ैर… अब रुपाणी से ये कौन ही पूछने जाए कि परंपराओं का हवाला देने के अलावा हाईकमान ने आपको कुछ भी बोलने से मना तो नहीं किया?
वैसे विजय रुपाणी और कुछ बोलेंगे भी क्यों? इन्हें भी तो मुख्यमंत्री का पद 2016 में आनंदी बेन पटेल को हटाने से ही मिला था। तब आनंदी बेन की उम्र 75 साल की थी और उन्हें उम्र का हवाला देकर ही इस्तीफा देने के लिए कहा गया था। हालांकि बाद में रुपाणी के नेतृत्व में ही भाजपा ने पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बावजूद 2017 विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी।
अब आंनदीबेन पटेल को भी थोड़ा पीछे ले चलें तो उन्हें भी गुजरात का मुख्यमंत्री इसीलिए बनाया गया था क्योंकि मई 2014 में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे, और तो और ख़ुद नरेंद्र मोदी भी कोई चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री पद पर नहीं आए बल्कि उन्हें भी सन् 2001 में केशुभाई पटेल की जगह पद पर बैठाया गया था, कारण सिर्फ ये था कि केशुभाई पटेल अपने चार साल पूरे कर चुके थे। यहीं से मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का सफर शुरु हुआ था।
कहने का मतलब ये है कि कांग्रेस और अन्य पार्टियों को हाईकमान के इशारे पर चलने जैसा आरोप लगाने वाली भाजपा… सबसे ज्यादा डिक्टेटरशिप का शिकार है। जहां जनता वोट तो करती है, लेकिन नेताओं का चुनाव पार्टी हाईकमान और संघ में बैठे लोग करते हैं।
चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्रियों को बदल देने के लिए भाजपा का अलार्म कौन बजाता है और क्यों? इसके लिए हमें महज़ एक साल पीछे जाने की ज़रूरत है। जब संघ प्रमुख मोहन भागवत गुजरात दौरे पर गए थे, यहां उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष सीआर पाटील समेत कई नेताओं के साथ बैठक की थी। भागवत के दौरे के बीच जन्माष्टमी के दिन सुरेश सोनी ने गुजरात में अमित शाह से मुलाकात की, इसके बाद से ही गुजरात में मुख्यमंत्री को बदलने की चर्चा शुरु हो गई।
कहने का मतलब ये है कि गुजरात में शराबबंदी के बावजूद बिक्री, ज़हरीली शराब से मौतें, कोरोना के वक्त हुई लापरवाहियां, ग़रीबों और किसानों में बढ़ रहा सरकार के खिलाफ अविश्वास और महंगाई से लेकर बेरोज़गारी तक पार्टी और मुख्यमंत्री के खिलाफ नाराज़गी को संघ ने पहले ही भांप लिया, और मुख्यमंत्री बदल डालने के लिए अलार्म बजा दिया।
गुजरात में भाजपा का इतिहास
गुजरात की सत्ता में भाजपा का जन्म 1995 में हुआ, उस वक्त केशुभाई पटेल को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया था। केशुभाई महज़ 221 दिन मुख्यमंत्री रहे, फिर न चाहते हुए भी कमान सुरेश मेहता के हाथ में देनी पड़ गई। जिसके पीछे शंकर सिंह बाघेला और दिलीप पारिख के ग्रुप का विरोध था, कि शंकर सिंह बाघेला को मुख्यमंत्री बनाया जाए, इसी विरोध को दबाने के लिए पार्टी हाईकमान ने सुरेश मेहता को कमान दी। भाजपा का ये फैसला भी ज्यादा काम नहीं आया। एक साल भी पूरा होता कि वाघेला बगावत करके अलग हो गए और भाजपा सरकार गिर गई।
कांग्रेस का समर्थन लेकर वाघेला मुख्यमंत्री तो बने लेकिन वो भी कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। यानी 1998 में हुए विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में भाजपा ने 182 में 117 सीटें जीतकर फिर सरकार बना ली।
वैसे मुख्यमंत्रियों को बदलने का दौर साल 1967 में हुए गुजरात के दूसरे विधानसभा चुनाव से ही शुरू हो गया था। आपको बता दें कि गुजरात राज्य का गठन सन् 1960 में हुआ। पहले विधानसभा चुनाव 1962 में और दूसरा 67 में हुआ। दूसरी विधानसभा के दौरान कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्री बने। चौथी विधानसभा में भी कांग्रेस ने चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री बदल दिया था। पांचवीं विधानसभा में तीन मुख्यमंत्री बने। हालांकि, हर बार अलग पार्टी का नेता ही मुख्यमंत्री बनता रहा।
फिलहाल आपको बता दें कि राज्य में माधव सिंह सोलंकी और नरेंद्र मोदी ही ऐसे नेता हैं जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया है, जिसमें नरेंद्र मोदी ने तीन बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली और दो कार्यकाल पूरे किए। इसके अलावा सोलंकी 1980 से 85 तक पूरे पांच साल मुख्यमंत्री रहे, हालांकि 1989 में सबसे कम 83 दिन का मुख्यमंत्री बने रहने का भी रिकॉर्ड उन्हीं के नाम है।
लेखक: रवि शंकर दुबे
(आभार:न्यूज़क्लिक)