हरियाणा के चुनावी रुझान बता रहे हैं कि कांग्रेस का प्रदर्शन उम्मीदों और अनुमानों से कहीं कमजोर है। वो ठीक से राज्य में सत्ता विरोधी लहर को वोटों में तब्दील नहीं कर पाई। इस रिपोर्ट को लिखे जाने के समय तक भाजपा 49 सीटों पर आगे चल रही थी, जबकि कांग्रेस 36 सीटों पर आगे थी। हालाँकि, भाजपा के लगभग 38.80% की तुलना में कांग्रेस का वोट शेयर 40.57% अधिक था। इसके बावजूद कांग्रेस की सीटें फिलहाल कम नजर आ रही हैं। राज्य में बहुमत का आंकड़ा 46 सीटों का है
चुनावी विश्लेषक हरियाणा में मुकाबले को एकतरफा बता रहे थे। एग्जिट पोल ने भी कांग्रेस को 55 सीटें तक दी थीं। लेकिन राज्य में मुकाबला अनुमान से कहीं ज्यादा करीबी है। हालांकि इस रिपोर्ट को लिखे जाने तक 25% वोटों की गिनती हो चुकी है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा पर बहुत अधिक निर्भर थी, लेकिन इसका कोई फायदा पार्टी को नहीं मिला। कांग्रेस का मानना था कि जाट, दलित और मुस्लिम वोट मिलकर राज्य में उसकी जीत सुनिश्चित करेंगे। लेकिन टिकट वितरण में हुड्डा की एकतरफा चली। बाकी नेता हाशिये पर रहे। नतीजा यह हुआ को शैलजा, रणदीप सुरजेवाला आदि ने ढंग से चुनाव प्रचार नहीं किया।
भाजपा के संगठन ने हरियाणा में ज्यादा कमाल दिखाया है। उसने गैर-जाट और गैर-मुस्लिम वोटों के बीच अपने वोटों को बेहतर ढंग से एकजुट किया है। इसके अलावा, गैर-जाट अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) वोटों को मजबूत करने की पार्टी की योजना काम करती दिखी। रुझान बता रहे हैं कि भाजपा ने पूर्वी और दक्षिणी हरियाणा के गैर-जाट क्षेत्रों में अपना गढ़ बरकरार रखा। साथ ही इसने जाट बहुल पश्चिमी हरियाणा में अच्छा प्रदर्शन किया है, जहां गैर-जाट वोट बड़ी संख्या में भाजपा के लिए एकजुट होते दिखे। यानी भाजपा ने जाट बेल्ट में गैर जाट वोट को एकजुट किया।
सत्ता विरोधी लहर के बावजूद कांग्रेस हुड्डा और शैलजा के बीच की गुटबाजी को रोकने में नाकाम रही है। राहुल गांधी रैलियों में दोनों का हाथ मिलवाते रहे, लेकिन पार्टी के प्रचार के लिए उनके दिल नहीं मिले। गुटबाजी ने पार्टी की संभावनाओं को बेहद कमजोर कर दिया है। ज़मीनी स्तर पर, कांग्रेस ने भाजपा की तरह एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ा, कई बागी निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ रहे थे।
हरियाणा में अगर भाजपा फिर से सत्ता में आती है, तो इसी साल मार्च में मौजूदा मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को बदलने का पार्टी का फैसला सही माना जाएगा। खट्टर को हटाकर बीजेपी ओबीसी नेता नायब सिंह सैनी को लाई थी। इसी तरह, 2022 में उत्तराखंड में भी भाजपा चुनाव से छह महीने पहले पुष्कर सिंह धामी को लाई थी, जबकि कांग्रेस ने अपने पुराने नेता हरीश रावत पर भरोसा किया था। जबकि उत्तराखंड में भी सत्ता विरोधी लहर चल रही थी।