भाजपा के पीलीभीत के सांसद वरुण गांधी केंद्र और उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के सबसे सधे हुए और वस्तुनिष्ठ आलोचक के तौर पर उभरे हैं। वे अनाप-शनाप बोल कर राजनीतिक हमला करने की बजाय रचनात्मक आलोचना कर रहे हैं। वे सरकार की नीतियों को लेकर सवाल उठा रहे हैं, चिट्ठी लिख रहे हैं और अखबारों में लेख लिख रहे हैं। उन्होंने हाल में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख भाई मंडाविया को चिट्ठी लिख कर कहा कि ‘दुर्लभ बीमारियों’ की स्थिति में नागरिकों को 10 लाख रुपए की मदद देने की केंद्र सरकार की योजना का लाभ आज तक किसी को नहीं मिला है, जबकि कितने बच्चे और बड़े लोग दुर्लभ बीमारियों का शिकार हुए हैं। वे किसानों के मसले पर भी लगातार मुखर रहे हैं।
तभी यह माना जा रहा है कि भाजपा में उनके लिए रास्ते बंद हो गए हैं। उनकी मां और सुल्तानपुर से भाजपा सांसद मेनका गांधी को पहले ही मंत्रिमंडल से हटा दिया गया था। वरुण या मेनका के पास पार्टी संगठन में कोई पद नहीं है, जबकि वरुण भाजपा के सबसे युवा महामंत्री रहे हैं। तभी सवाल है कि अब वे आगे क्या करेंगे? पिछले दिनों उन्होंने कहा कि वे न कांग्रेस के खिलाफ हैं और न नेहरू के खिलाफ हैं। क्या इससे कांग्रेस में उनके लिए रास्ता खुलता है? इस बारे में पूछे जाने पर राहुल गांधी ने कहा कि उनको दिक्कत नहीं है लेकिन भाजपा वरुण के लिए मुश्किल पैदा करेगी।
सवाल है कि अगर वे भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में चले जाते हैं तो भाजपा क्या मुश्किल पैदा करेगी? वे खुद ही यह सुनिश्चित करने में लगे हैं कि भाजपा अगली बार उनको और मेनका गांधी को टिकट नहीं दे। अगर वे कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ते हैं तो उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी वाड्रा को एक मजबूत सहयोगी मिलेगा और देश के सबसे बड़े राज्य में कांग्रेस को मजबूत आधार मिल जाएगा। उनके सामने क्षेत्रीय पार्टी में जाने का विकल्प भी है। लेकिन उनकी पृष्ठभूमि और राजनीतिक कद के लिहाज से किसी क्षेत्रीय पार्टी में उनकी जगह नहीं बनेगी और न वहां उनकी महत्वाकांक्षा पूरी हो सकेगी। तीसरा विकल्प अपनी पार्टी बनाने का है। लेकिन उसके लिए समय कम बचा है। इन तीनों में से उनको जल्दी ही कोई विकल्प चुनना होगा।