तवलीन सिंह ने जनसत्ता में अली खान महमूदाबाद से अपने पारिवारिक रिश्ते का उल्लेख करते हुए लिखा है कि अली खान प्रतीक हैं भारत की मिली जुली संस्कृति के. उनके दादा पाकिस्तान में बस गये जो जिन्ना के करीबी थे. लेकिन, परिवार ने हिन्दुस्तान में रहने का फैसला किया. महमूदाबाद की जायदाद सरकार ने शत्रु कानून के तहत हड़प ली, फिर भी कुछ किले, जमीन बचा पाने में यह परिवार कामयाब रहा. अली का दोष यह है कि उन्होंने याद दिलाया कि हिन्दुत्व के वही सिपाही जो सोफिया कुरैशी की प्रशंसा कर रहे थे, उनको उन आम बेबस मुसलमानों की भी चिंता होनी चाहिए जिनके घर बुलडोजरों से गिराए जाते हैं बिना किसी अदालत में आरोप साबित हुए. क्या ऐसा कहने से देश की अखंडता और संप्रभुता को खतरा है? क्या सोशल मीडिया पर इस बात को कहने से हिंदुओं और मुसलमानों में द्वेष पैदा होता है?
तवलीन सिंह लिखती हैं कि समझना मुश्किल है कि अली ने गलत क्या कहा. लेकिन, जब भारतीय जनता पार्टी के अधिकारी चाहते हैं किसी की गिरफ्तारी तो अक्सर होकर रहती है. अली को फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय से अंतरिम जमानत मिल गयी है. सो, कम से कम ये अपनी पत्नी के साथ रह सकेंगे जब उनका पहला बच्चा कुछ दिनों में पैदा होगा. एक गौरवान्वित भारतीय होने के नाते लेखिका को शर्म आती है कि इस देश को इतनी छोटी चीजों से खतरा होने लगा है.
लेखिका ने अपने साथ घटी घटना का भी जिक्र किया है. एक साहित्य सम्मेलन में उन्होंने अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले का समर्थन किया था. उसी सम्मेलन में राधा कुमार भी शामिल थीं जिनकी राय इतर थी. दोनों पर ही देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करा दिया गया. मुकदमा दर्ज कराने वाला आज टीवी चैनल पर भाजपा प्रवक्ता बना बैठता है. लेखिका का कहना है कि छुटभैया भाजपाई नेता और पदाधिकारी इस तरह की हरकतें करते फिरते हैं. आला नेता ऐसे लोगों को कभी ना कभी पार्टी की सीढ़ियां चढ़ाने में मदद करते हैं.