उत्तर भारत में 12वीं सदी का दौर भारी उथल-पुथल भरा था. अफगानिस्तान में नई सल्तनतों के उदय के साथ, मध्य एशिया और भारत में गंगा के मैदान के बीच संबंध फिर से जीवंत हो गए थे. राजकाज और शाही पोशाक के तुर्क विचारों को कश्मीर और लद्दाख के माध्यम से शैव और बौद्ध शासकों ने अपनाया लिया था. गजनी के महमूद (महमूद गजनवी) जैसे शासकों ने भारतीय सैनिकों को नियुक्त किया और अपने क्षेत्र में मंदिरों को फलने-फूलने दिया. यहां तक कि मोहम्मद गोरी ने भी देवी लक्ष्मी के चित्र वाले सिक्के जारी किए, जिसे आज बॉलीवुड में सबसे बेतुके ढंग से चित्रित किया जाता है.
हालांकि, उस युग के साहित्यिक स्रोतों ने उस अवधि को ‘इस्लामी कट्टरता’ बनाम ‘हिंदू प्रतिरोध’ के रूप में चित्रित करना बहुत आसान बना दिया है. यह अति सरलीकरण है, लेकिन समझने योग्य है. आखिरकार, जितना अधिक सुल्तानों ने खुद को भारत में भारतीय शासकों के रूप में पेश करने की कोशिश की, उन्होंने पश्चिम एशिया में रूढ़िवादी समाज को खुश करने के लिए अपने दरबारियों को ‘काफिरों’ पर विजय और विनाश के अफसाने तैयार करने में लगाया. लेकिन उस समय भारत में क्या हो रहा था?
भारत में शासन करने वाले अभिजात वर्ग ने इन नए प्रतिद्वंद्वियों के उथल-पुथल को कैसे देखा? उन्होंने उनकी लड़ाइयों को कैसे पेश किया, और वे किसे सुनाना चाहते थे? इन सवालों के जवाब हमें एक बार फिर बताते हैं कि इतिहास की असलियत हमारी सोच से कहीं बहुत ज्यादा अनजान है।
बर्बर ‘पराए’?
12वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में कभी गोर के सुल्तान के मुख्य वजीर के नेतृत्व में एक प्रतिनिधमंडल चौहान राजा पृथ्वीराज तृतीय (जिन्हें हम पृथ्वीराज चौहान के नाम से बेहतर जानते हैं) के दरबार में पहुंचा. इतिहासकार फिनबार बैरी फ्लड ‘ऑब्जेक्ट्स ऑफ ट्रांसलेशन’ में बताते हैं कि कैसे एक गोर ग्रंथ ताज अल-माथिर में दावा किया गया है कि ‘दूत … ने सुल्तान के संदेश को राजा के सामने बेहद सुसंस्कृत और सुंदर तरीके से बताया. उसने परामर्श और चेतावनी को बारीक मुहावरों को शब्दों की मोतियों में गूंथकर पेश किया.’
हालांकि पृथ्वीराज के दरबार में तैयार एक संस्कृत टेक्स्ट ज्यादा कड़वा है: ‘उसका सिर इतना गंजा और उसका माथा इतना चौड़ा था कि मानो भगवान ने जानबूझकर उसे ऐसा बनाया, ताकि उसके माथे पर (तांबे की प्लेट की तरह) लिखा जा सके कि उसने बड़ी संख्या में गायों का वध किया है. उसकी दाढ़ी, उसकी भौहें, उसकी पलकों का रंग उसकी जन्मभूमि में उगने वाले अंगूरों से ज्यादा पीले थे … उसकी बोली तो भयानक कर्कश थी, जंगली पक्षियों की चिल्ल-पों की तरह … उसके उच्चारण अशुद्ध थे, वैसे ही अशुद्ध जैसा उसका रंग था. मानो उसे चर्म रोग हुआ था, इतना भयानक सफेद था वह.’
पृथ्वीराज-विजय एक महाकाव्य है, जिसका काल 1192 ईसवी है जब गोरियों और चौहानों के बीच लड़ाई चरम पर थी. भारतीय दरबारों में ये महाकाव्य बाकी कुलीन समाज के लोगों को पढ़ने के लिए तैयार कराया गया था. ये अफगान सुल्तानों के तैयार कराए गए विजय आख्यानों जैसे ही थे, जो अपने कुलीन समाज के लिए था. अप्रत्याशित रूप से, ऐसे ग्रंथों में राजा के विरोधियों को कायर, बदसूरत, अनैतिक और अजीबोगरीब के रूप में पेश करने के लिए सीमाएं लांघ दी जाती हैं, ताकि आखिर में राजा की हार को सही ठहराया जा सके और उसके सकारात्मक गुणों को उभारा जा सके.
इस अर्थ में, वे ग्रंथ आधुनिक टॉलीवुड, कॉलीवुड और बॉलीवुड महाकाव्यों से काफी मिलते-जुलते हैं, जो दर्शकों को नायक के प्रति सहानुभूति रखने के लिए उसी तकनीक का प्रयोग करते हैं. ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में, वे महाकाव्य फिल्मों से ज्यादा विश्वसनीय नहीं हैं.
सुल्तानों की विस्तार शक्ति का अधिक गंभीर दृष्टिकोण इटावा किला शिलालेख (दिल्ली सल्तनत के संस्कृत शिलालेख, पृष्ठ 92-93) में मिलता है. शिलालेख के मुताबिक, 1193 शताब्दी में गहदावाला राजा अजय सिंह के एक अज्ञात पुजारी ने देवी दुर्गा के लिए बलि चढ़ाई थी. यह तराइन की दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराजा चौहान की हार के तुरंत बाद का वाकया है, जब कन्नौज को सुल्तान ने जीत लिया था. पुजारी ने दुर्गा की मूर्ति गाड़ दी थी, जिसे बाद में खुदाई में निकाला गया.
उसने लिखा, ‘मलेच्छों के डर के मारे मेरी तर्क-बुद्धि नष्ट हो गई है. बड़े दुख के साथ, किले की रक्षक, दुख विनाशक दुर्गा को अपने माथे से लगाकर मैं इस गड्ढे में रखता हूं, जब तक कि भगवान स्कंद मलेच्छों की महिमा को धूल में नहीं मिला देते. यवनों पर दुर्भाग्य हावी होगा तो वे फिर प्रकट हो सकती हैं, या हाहाकार के साथ प्रकट हो सकती हैं!’ ऐसे शिलालेख विजय अभियान से फैली हिंसा और नए शासक के आने से अपने सामाजिक-राजनीतिक और धार्मिक संस्थानों के विनाश के बारे में कुलीन वर्ग के एहसास को बताते हैं.
ऐसा लगता है कि जिस तरह सुल्तानों ने अपने रूढ़िवादी समाज के लिए यह दावा किया कि वे हिंदू देवताओं के दुश्मन थे, हिंदू शासक कुलीन वर्ग ने भी उन्हें अपने धर्म के विरोधी के रूप में देखा. या क्या ऐसा ही था?
‘देवी-देवताओं का रक्षक’ सुल्तान
सुल्तानों के आतंक से एक पुजारी के दुर्गा की मूर्ति को गाड़ देने की घटना के लगभग 80 साल बाद, 1276 शताब्दी में दिल्ली के एक अन्य ब्राह्मण योगीश्वर ने एक शिलालेख बनाया, जिसमें लिखा: ‘हरियाणक की भूमि पर पहले तोमरों और फिर चौहानों का राज था. अब शक राजा इसका आनंद उठा रहे हैं … वह, सात-समुद्र से घिरी पृथ्वी की मोतियों की हार में चमकदार रत्न, नायक श्री हम्मीरा (अमीर) गयासदीना (गयास-उद-दीन बलबन) राजा और सम्राट सर्वोच्च हैं … पृथ्वी अब अपने प्रभु शेष (नाग) के सिर पर विराजमान है, वे धरती के वजन को धारण करने के अपने कर्तव्य को छोड़कर विष्णु की सैय्या बन गए हैं; और विष्णु स्वयं रक्षा के लिए लक्ष्मी को अपने सीने पर लेकर, और सभी चिंताओं को त्याग कर, क्षीर सागर में विश्राम कर रहे हैं.’
इस शिलालेख में सुल्तान को एक ऐसे धर्मी और सक्षम शासक के रूप में दर्शाया गया है, जिससे भगवान विष्णु निश्चिंत होकर विश्राम कर सकते हैं, (दिल्ली सल्तनत के संस्कृत शिलालेख, पृष्ठ 12-15). और पृथ्वीराज-विजय के लगभग 100 साल बाद, 1290 ईसवी तक, गोरियों के हार न मानने वाले शत्रु चौहानों ने न केवल शाही पोशक स्वीकार कर लिए, बल्कि उपहार में स्वर्ण प्रतिमाएं भेजी थीं. अपने एक शासक का नाम हम्मीरा (अमीर) भी रखा था, जिसका भाई सुरत्राण (सुल्तान) था. दरअसल, कुछ समय बाद के एक ग्रंथ हम्मीरा-महाकाव्य में अलाउद्दीन खिलजी की ताकत की प्रशंसा की गई है और हम्मीरा के अंतिम रुख का वर्णन एक महिमाशाही, एक मुसलमान के पक्ष में करता है. हम इन विरोधाभासी चित्रणों को कैसे समझ सकते हैं?
ब्रजदुलाल चट्टोपाध्याय अपनी किताब रिप्रेजेंटिंग द अदर?: संस्कृत सोर्सेस एंड द मुस्लिम्स में इसकी एक व्याख्या पेश करते हैं. सीधे शब्दों में कहें, तो जब मुस्लिम राजा तत्कालीन कुलीन सामाजिक व्यवस्था का आदर करते थे – ब्राह्मणों को सम्मान और मंदिरों को दान देते थे, ऊंची जातियों को राजकाज में नियुक्त करते थे- तब संस्कृत ग्रंथों में उनकी उसी तरह प्रशंसा होती थी, जैसे किसी भी मध्ययुगीन भारतीय की. जब उनके साथ सम्मान का व्यवहार किया जाता था और उन्हें धन दिया जाता था, तो भारतीय कुलीन वर्ग को मुसलमानों के साथ काम करने में कोई समस्या नहीं थी; तुर्क, फारसी और अफगानों को एक बड़े सर्वदेशीय शासक वर्ग के रूप में स्वीकार कर लिया गया था और भारतीय कुलीन वर्ग दूसरे राजनीतिक विरोधियों से संसाधन और धन ऐंठने में उनके साथ काम किया करता था.
लेकिन, जब संस्कृत बोलने वाले कुलीनों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था, खासकर राज विस्तार और युद्ध के समय में, तो मुस्लिम राजाओं को मलेच्छ बता दिया जाता था, जिन पर सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करने, गोहत्या और ब्राह्मणों को सताने जैसे आरोप मढ़ दिया जाता था. यह किसी भी तरह से राष्ट्रवाद या कट्टरता नहीं है, बस व्यावहारिकता और सुविधा की राजनीति है, जो हमारे आज के समय जैसी ही है.
जब हम अपने आधुनिक पूर्वाग्रहों के साथ मध्ययुगीन स्रोतों को देखते हैं, तो यह सवाल पूछना जरूरी है कि क्या हमें जो इतिहास पढ़ाया गया, वह उन साक्ष्यों से मेल खाता है, जो हमारे सामने हैं? हमें निरंतर धार्मिक शत्रुता, उत्पीड़न और प्रतिरोध का इतिहास पढ़ाया जाता है. लेकिन, सभी साक्ष्य-कला इतिहास से लेकर मुद्राशास्त्र और साहित्य तक-वास्तव में अधिक जटिल मध्ययुगीन संसार की ओर इशारा करते हैं. हमारे आज की तरह ही, वह संसार भी अपने स्वार्थ में डूबे कुलीनों से भरा था, जिन्हें खुद को बेहतर दिखाने के लिए झूठ बोलने में कोई दिक्कत नहीं थी. हमारी तरह ही, यह संभव है कि ‘श्रीमद’ मोहम्मद गोरी से लेकर महाराजा हम्मीरदेव तक कई पहचान के साथ लोग अलग-अलग तबकों के सामने पेश कर रहे थे.
लेखक: अनिरुद्ध कनिसेट्टि
आधार: द प्रिंट