✍🏻लेख : कांचा इलैया शेफर्ड
जयपुर में एक हालिया रैली में राहुल गांधी के एक भाषण ने ‘हिंदू कांग्रेस’ बनाम ‘हिंदुत्व बीजेपी’ बहस को जन्म दे दिया है। उन्होंने कहा कि जहां हिंदू धर्म ‘सत्य ’ की बात करता है, वहीं हिंदुत्व ‘सत्ता ’ की चाह रखता है। राहुल गांधी की ये हिंदू विचारधारा अचानक ही सामने नहीं आ गई। इस विचार को शुरू करने वाले एक साथी कांग्रेसी हैं- शशि थरूर, जिन्होंने 2018 में एक किताब लिखी व्हाई आई एम अ हिंदू। इसी नैरेटिव को पी चिदंबरम और जयराम रमेश ने आगे बढ़ाया, जिन्होंने अपने लेखों और भाषणों में कहा है कि ‘वो हिंदू हैं लेकिन हिंदुत्ववादी नहीं हैं’। इस हिंदू धर्म को वो मोदी के हिंदुत्व से उलट मानते हैं। ये दोनों सबसे अधिक दिखाई देने वाले विदेशी शिक्षित बुद्धिजीवी राजनेता हैं। पहले ये नेता अपने आपको ‘हिंदू’ नैरेटिव से जोड़ने में झिझकते थे और खुद को नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता के तौर पर पेश करते थे। अब राहुल और प्रियंका गांधी तक मंदिरों के चक्कर काट रहे हैं और अपने आपको पवित्र हिंदू ब्राह्मणों के रूप में पेश कर रहे हैं।
ये सब ऐसे समय हो रहा है जब नरेंद्र मोदी, जिन्होंने खुद को ओबीसी घोषित किया था, भारत के प्रधानमंत्री हैं. 2014 लोकसभा चुनावों से पहले, मोदी ने बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर खुद को एक ताकतवर कांग्रेस-विरोधी हिंदुत्व लीडर के रूप में पेश किया और ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा दिया।
मोदी ने सरदार वल्लभभाई पटेल को एप्रोप्रियेट करके और बड़ी चालाकी के साथ आंबेडकर की विरासत को अपनाकर, कांग्रेस को कंफ्यूज कर दिया है। कांग्रेस ने दोनों की उपेक्षा की थी। उनकी कांग्रेस-विरोधी और मुस्लिम-विरोधी छवि, लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी से अलग है।
2014-पूर्व की कांग्रेस ने कभी सोचा नहीं था कि एक ओबीसी नेता जिसकी 2002 के गुजरात दंगों से निपटने को लेकर, न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया भर में आलोचना हुई थी, पूरे बहुमत के साथ एक राष्ट्रीय चुनाव जीत लेगा। वाजपेयी और आडवाणी कभी कोई राष्ट्रीय चुनाव पूर्ण बहुमत के साथ न जीतते। उनके नेतृत्व में बीजेपी ने लोकसभा चुनावों में कभी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं किया। मोदी ने खुद को एक ओबीसी के तौर पर पेश करके एक निर्णायक भूमिका अदा की। कांग्रेस इस बात को जानती है. मेरे विचार में, अलग वो एक हिंदुत्व ब्राह्मण होते, तो इस तरह नहीं जीत सकते थे।
कांग्रेस से कहां चूक हुई
मोदी प्रधानमंत्री न बन पाते अगर कांग्रेस ने लगभग चार दशकों तक शूद्रों/ओबीसीज़ की उपेक्षा न की होती और द्विजा/मुस्लिम/दलित जनाधार के साथ न चिपकी रहती. मोदी और उनकी टीम ने, जिनके पीछे पूंजी की ताकत थी, शूद्रों/ओबीसीज़ के गुस्से को समझ लिया, जो यूपीए शासन के दौरान दिल्ली की सत्ता के गलियारों से स्पष्ट रूप से गायब रहे. उन्होंने हिंदुत्व के एजेंडा को शूद्रों/ओबीसी एजेंडा में बदल दिया. हालांकि इससे आरएसएस के सनातन हिंदुत्व को मानने वालों के बीच तनाव फैल गया लेकिन संघ परिवार को मोदी और उनकी टीम के साथ आना पड़ा क्योंकि मोदी ने उन्हें दिल्ली में सत्ता दिलाई, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। कांग्रेस के ‘हिंदू धर्म बनाम हिंदुत्व ’ विचारक वोट खींचने वाले नहीं हैं लेकिन अगर एक बार नेहरू-गांधी परिवार पार्टी को सत्ता में वापस ले आता है, तो इनकी निगाहें सत्ता में प्रमुख पदों पर होंगी। दस साल पहले यही नेता यूपीए सरकार चला रहे थे और इन्होंने किसी मंडल ओबीसी विचारक को सत्ता में शरीक नहीं होने दिया। शशि थरूर जैसे नेता जो भारत को ‘मवेशी वर्ग’ के चश्मे से देखते हैं, हिंदू धर्म पर अपनी किताब का एक पन्ना भी ओबीसी/दलित/आदिवासियों के लिए नहीं रखेंगे, ना ही दबे-कुचलों की स्थिति पर विचार करेंगे या छुआछूत के विषय को छेड़ेंगे. कांग्रेस नेताओं की इसी मानसिकता ने शूद्रों/ओबीसीज़ को मोदी की गोद में बिठा दिया। राहुल गांधी को देश को समझाना होगा कि उनके हिंदू धर्म की रूपरेखा क्या है, जिसे कांग्रेस बीजेपी के ‘सत्ता के हिंदुत्व’ के खिलाफ पेश करना चाहती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आंबेडकर और महात्मा गांधी ने हिंदू सुधारों पर वाद-विवाद किया था लेकिन उसके बाद कांग्रेस हिंदुत्व पर ऐसे सवालों से उलझना भूल गई। आरएसएस/बीजेपी हिंदुत्व सनातन हिंदू धर्म, तथा अल्पसंख्यक-विरोधी वोट खींचने के लिए धर्म के राजनीतिकरण में विश्वास रखते हैं।
अगर कांग्रेस हिंदुत्व नहीं है बल्कि शशि थरूर की तरह की ‘हिंदू’ है, तो शूद्र/ओबीसीज़ न तो इस पार्टी का समर्थन कर सकते हैं और न करेंगे। मंडल के बाद के भारत में उन्हें, हिंदू धर्म के भीतर जाति उत्पीड़न और संस्थाओं पर द्विजा नियंत्रण मंजूर नहीं है। अभी तक, कांग्रेस विचारकों ने शूद्रों/ओबीसीज़ को विश्वास दिलाने के लिए कोई नई बुद्धिमानी नहीं दिखाई है कि वो और उनकी पार्टी हिंदू धर्म में जाति समावेशन के समर्थन में हैं और मंदिर के पुरोहितों पर ब्राह्मणों के एकाधिकार, छुआछूत और नागरिक समाज के भीतर श्रेणीबद्ध असमानता जैसे मुद्दों के खिलाफ हैं।
कांग्रेस को मुख्य रूप से द्विजा और कुछ मुसलमान नेता चलाते हैं। दशकों तक जब कांग्रेस राज कर रही थी, तो मंदिर व्यवस्था राज्य सरकारों के अधीन थी। उन्होंने हिंदू धर्म को समावेशी बनाने के लिए कोई पहल नहीं की है। जाति जनगणना पर भी उनका कोई स्पष्ट रुख नहीं है। अब कांग्रेस देश को क्या नया रास्ता दिखाएगी?
गहरी समस्या
अगर कांग्रेस अपनी नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता को त्याग देती है, जो धार्मिक सवालों पर खामोश रहा था, तो हिंदू धर्म का वो कौन सा नया रास्ता अपनाएगी?
वाम-उदारवादी बुद्धिजीवियों ने भी, जो कांग्रेस राज में बहुत सारी सरकारी संस्थाओं को नियंत्रित कर रहे थे, धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इस खामोश ‘हिंदू ऑपरेशन’ का फायदा उठाया और किसी ओबीसी/दलित/आदिवासी को अहम स्थिति में नहीं आने दिया। इस पृष्ठभूमि ने एक आक्रामक हिंदुत्व रुख अपनाने में मोदी की सहायता की। किसानों के संघर्ष, बढ़ती कीमतों और महामारी ने प्रधानमंत्री के मतदाता वर्ग में एक संकट पैदा कर दिया है। लेकिन कोई समावेशी रणनीति न होने के कारण कांग्रेस इस वोट को अपने पक्ष में लामबंद करने में विफल रही है।
‘हिंदू धर्म बनाम हिंदुत्व ’ की वाकपटुता मात्र से कांग्रेस से ओबीसी/दलित/आदिवासी अलगाव की समस्या का समाधान नहीं होता। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की रचना में ही एक गहरी समस्या है। संभ्रांत वर्ग के अकादमिक प्रवचनों से जमीनी स्थिति, संगठन के पक्ष में नहीं बदल जाती। दिल्ली में बैठे रणनीतिकार नई सामाजिक ताकतों को उत्पीड़ित जाति या समुदायों के बीच से नेता पैदा करने नहीं देते। आज, भारत को महात्मा गांधी के जैसे नेतृत्व की आवश्यकता है- जिद्दी फिर भी निस्वार्थ और जन समूह को जुटाने में सक्षम। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के बारे में नहीं सोचना चाहिए। उनके आसपास के लोग फिर से मंत्री बनना चाहते हैं। लेकिन आज शूद्र/ओबीसीज़ ऐसी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेंगे। अगर राहुल गांधी ‘हिंदू’ साधनों के जरिए कांग्रेस को अपनी जगह से खिसकाना चाहते हैं तो उन्हें धर्म और अपनी पार्टी के सुधार के एजेंडा की व्याख्या करनी होगी।
(व्यक्त विचार निजी हैं)
साभार : दी प्रिंट हिंदी