इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिन्दी अखबार जनसत्ता में काम करने और सीखने की गजब की गुंजाइश थी और वहां काम करने का अनुभव भी गजब का हुआ। पत्रकारिता संस्थानों से आए प्रशिक्षुओं और नौकरी में नए आए साथियों को डेस्क पर काम सिखाने के भी खूब मौके मिले। उस दौरान कांग्रेसी प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय का बोफर्स घोटाला, 1992 का हर्षद मेहता का शेयर मार्केट घोटाला, 1991 का जैन भाइयों का हवाला कांड, बलराम जाखड़ का चारा मशीन घोटाला आदि देश में कुछ बेहद सनसनीखेज घोटाले हुए थे जिनकी खबरें बहुत ही गोपनीय तरीके से बंद कमरे के भीतर लिखी गई थी और अखबार के पेज भी बड़ी गोपनीय तरीके से बनाए गए थे ताकि सरकार को इसकी भनक न लगे।
डर था कि अगर सरकार को कहीं इसकी भनक लग गई तो रातों रात अखबार के दफ्तर पर छापा पड़ जाएगा और तब कहीं सरकार अखबार ही छपने से न रोक दे। उन दिनों अक्सर संसद का सत्र शुरू होने के दिन ही ऐसी कोई न कोई स्टोरी ब्रेक की जाती थी। इन खबरों से संसद में खूब हंगामा मचता था और सांसद सदन में अखबार लहराते थे। अखबार में बेहद चर्चित घोटालों पर हुए इन रहस्योदघाटनों से मानो संसद भवन ही हिल जाता था। तब सचमुच इस तरह की खबरों को अपने अखबार में छपा देखकर काम करने में बड़ा मजा आता था और खुद पर बहुत गर्व होता था।
अमूमन ऐसी खबरें जब भी ब्रेक की जाती थी तो उसकी गोपनीयता का बहुत खयाल रखा जाता था। सिर्फ चंद वरिष्ठ लोगों को ही यह पता होता था कि क्या खबर जाने वाली है। खबरों का उदगम तो इंडियन एक्सप्रेस ही होता था। उनका संपादक या रिपोर्टर अपनी विस्फोटक खबर की कॉपियां जनसत्ता के प्रधान संपादक को दे देता था। पर सबकुछ एकदम गोपनीय होता था।इंडियन एक्सप्रेस में खबर लिखनेवाले संपादक या रिपोर्टर के अलावा सिर्फ संपादक को ही खबर के बारे में मालूम होता था। जनसत्ता में सिर्फ प्रधान संपादक को ही पता होता था।
संपादक के आदेश पर सिर्फ चंद वरिष्ठ लोग उस खबर के अनुवाद के लिए लगाए जाते थे। जब-जब ऐसा कुछ होना होता था तो जनसत्ता डेस्क के कुछ वरिष्ठ साथी अचानक कुछ घंटों के लिए गायब हो जाते थे। इनमें सत्य प्रकाश त्रिपाठी, श्रीश चंद्र मिश्र, अमित प्रकाश सिंह, अभय कुमार दुबे और मनोहर नायक जैसे माहिर लोग हुआ करते थे। खबर का अनुवाद अमूमन किसी बंद कमरे में या फिर प्रधान संपादक के कमरे में ही होता था। अनुवाद में लगे उन वरिष्ठ लोगों को कमरे से बाहर निकलने तक की इजाजत नहीं होती थी। चाय-पानी का इंतजाम अंदर ही करा दिया जाता था। ये वरिष्ठ लोग बड़ी स्वामिभक्ति से यह काम किया करते थे। इस सबसे जनसत्ता को बाकी अखबारों से अलग दिखने और इंडियन एक्सप्रेस का हिन्दी संस्करण बनाए रखने में बड़ी मदद मिली।
असल में ऐसी गुप्त खबरें कभी डेस्क पर नहीं आती थी। डेस्क पर तो किसी को इसकी हवा भी नहीं लगती थी। सिर्फ एडिशन इंचार्ज से कह दिया जाता था कि पहले पेज पर इतनी जगह छोड़ देनी है। खबर बाद में दी जाएगी। उसमें भी कई बार खबर प्रभात संस्करण से नहीं देकर, नगर संस्करण से लगाने की शुरुआत की जाती थी। अक्सर इंडियन एक्सप्रेस में खबरें देखकर लगता था कि यह खबर कब आई पर वह नगर एडिशन में होती थी। इंडियन एक्सप्रेस और उसके संपादक अरुण शौरी की लगभग सारी खबरें ऐसे ही छपती थीं।
अरुण शौरी ने कहीं कहा था या लिखा था या किसी और ने लिखा था कि वे जानबूझ कर ऐसी खबरें संसद सत्र चलते समय छापते हैं। मुख्य रूप से ऐसा इसलिए होता था ताकि खबर रोकने के लिए सरकार की तरफ से कोई दबाव न पड़े। हाल में आई अरुण शौरी की किताब, द कमिशनर फॉर लॉस्ट कॉजेज में ऐसे कुछ मामलों का जिक्र है। ऐसी गोपनीय और विस्फोटक खबरों की कंपोजिंग का काम पीटीएस की गहन निगरानी में होता था। बाद में जब डेस्क के कुछ साथियों की पीटीएस फोरमैन से दोस्ती हो गई थी तो वे उन्हें खबर पहले ही पढ़वा देते थे। मुख्य रूप से उनकी दिलचस्पी खबर जानने में होती थी जो वे अंग्रेजी से नहीं समझ पाते थे, अंग्रेजी वाले भी।
प्रभाष जोशी को श्रीहीन करने का खेल
जनसत्ता के जानकार बताते हैं कि जनसत्ता के बंबई संस्करण के स्थानीय संपादक राहुल देव अपने प्रधान संपादक प्रभाष जोशी को निपटाने की तैयारी में काफी समय से लगे हुए थे। इसके लिए तरह-तरह की हर संभव साजिशें रची जाती थीं। जानकारों के मुताबिक इंडियन एक्सप्रेस की बंबई यूनिट के मैनेजर संतोष गोयनका से गाढ़ी दोस्ती गांठना और फिर उनके जरिए मालिक रामनाथ गोयनका के नाती और छोटे मालिक विवेक खेतान (जो बाद में रामनाथ गोयनका जी के गोद लिए पुत्र बनकर पूरे इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक बन गए थे) के घर-परिवार में सेंध लगाकर सपरिवार वहां जाने का सिलसिला शुरू करने के पीछे का मकसद अखबार से प्रभाष जोशी का पत्ता काटना ही था।
पर विवेक खेतान यह बात अच्छी तरह जानते थे कि प्रभाष जोशी जी उनके नाना रामनाथ गोयनका के संघर्ष के दिनों के पुराने साथी रहे हैं और बिनोबा भावे के भूदान आंदोलन, भिंड-मुरैना के बीहडों के खूंखार डकैतों का आत्मसमर्पण कराने और इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से लड़ने में रामनाथ गोयनका के साथ-साथ प्रभाष जोशी हमेशा खड़े रहा करते थे। इसीलिए प्रभाष जोशी के खिलाफ राहुल देव समय-समय पर विवेक खेतान को जो फीड करते रहे थे उसे विवेकजी फेस वैल्यू पर लेने से परहेज कर रहे थे और इस तरह राहुल देव का विवेक खेतान से बड़ी मेहनत से बनाया गया वह अंतरंग रिश्ता भी सही और वांछनीय नतीजे नहीं दे पा रहा था।
जानकार मानते हैं कि प्रधान संपादक प्रभाष जोशी को हटाकर जनसत्ता पर काबिज होने का राहुल देव का सपना जब इस तरह पूरा नहीं हो पा रहा था तो उन्होंने एक दूसरा तरीका भी सोच निकाला। वह तरीका था प्रधान संपादक प्रभाष जोशी की इजाजत से किसी तरहजनसत्ता में कोई बड़ी ब्लंडर गलती कराने या फिर कोई झूठी खबर छापकर प्रधान संपादक प्रभाष जोशी के ऊंचे कद और पत्रकारिता में बड़ी लकीर वाली उनकी शानदार छवि पर कालिख पोत देना ताकि नए मालिक विवेक गोयनका को यह यकीन दिलाया और समझाया जा सके कि प्रभाष जोशी बिल्कुल नकारा हो गए हैं और उनकी अब जनसत्ता में कोई दिलचस्पी नहीं रही है और वे अब सिर्फ शोहरत, पैसा और सुविधाओं के लिए अखबार से चिपके रहना चाहते हैं।
राहुल देव इसके जरिए नए मालिक विवेक गोयनका (विवेक खेतान) के सामने यह भी साबित करने की सोच रखते थे कि प्रभाष जोशी की काबिलियत पर वे अबतक जो सवालिया निशान लगाते रहे थे वे गलत नहीं थे।
शायद वह तारीख थी 4 सितंबर, 1995 जब अखबार के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी बंबई आए हुए थे औरजनसत्ता के दफ्तर में मौजूद थे। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी की बीट देखनेवाले जनसत्ता के राजनैतिक संवाददाता अनिल सिन्हा अचानक महाराष्ट्र के गृह विभाग से चुपचाप क्राइम की एक बहुत ही संवेदनशील खबर लेकर आए। यह खबर उनको गृह मंत्रालय के एक उच्चपदस्थ सूत्र की तरफ से एक बंद लिफाफे में उपलब्ध करवाई गई थी। खबर देनेवाले अधिकारी ने अनिल सिन्हा से कहा कि वे उस लिफाफे को यहां नहीं, अपने दफ्तर जाकर ही खोलें। उन दिनों जनसत्ता में क्राइम की खबरें मंजे हुए क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल ही देखते थे। विवेक अग्रवाल के पास पूरा अपराध जगत, पुलिस, आईबी, रॉ, तमाम खुफिया जांच एजेंसियां, सेना, कस्टम और अंडरवर्ल्ड गिरोह था। विवेक अग्रवाल उस दिन दफ्तर में ही थे और ड्यूटी पर तैनात थे। पर क्राइम की वह अति संवेदनशील खबर विवेक अग्रवाल को नहीं दी गई। खबर अंडरवर्ल्ड के बारे में थी। पर उन्हें उस खबर के बारे में कुछ बताया भी नहीं गया। उन्हें अगर यह खबर बताई गई होती तो वे अंडरवर्ल्ड के अपने भरोसेमंद सूत्रों से इस खबर की पुष्टि कर लेते और इत्मीनान होने के बाद ही छपने के लिए देते। कायदे से क्राइम की यह खबर विवेक अग्रवाल को ही दी जानी थी। यह बात सही है कि गृह मंत्रालय अनिल सिन्हा ही देखते थे। पर इस खबर के नेचर को देखते हुए अव्वल तो यही बेहतर होता कि अगर अनिल सिन्हा खुद ही गृह मंत्रालय जाकर यह खबर वहां से ले भी आए थे तो उसे विवेक अग्रवाल को देकर या दिखाकर उसकी जांच करा ली जानी चाहिए थी और उसे विवेक अग्रवाल से ही लिखवाया जाना था। पर जानबूझकर ऐसा नहीं किया गया। हां, विवेक अग्रवाल से राहुल देव ने सिर्फ इतना भर कहा कि आज हम अंडरवर्ल्ड पर एक पूरा पेज दे रहे हैं इसलिए उस पर एक बड़ा सा बैकग्राउंडर लिख दीजिए। संपादक के आदेश पर विवेक अग्रवाल ने बैकग्राउंडर लिखा और काम पूरा करके घर चले गए। उनको उस शाम अपने किसी रिश्तेदार को लेने कहीं जाना था।
अनिल सिन्हा ने चुपचाप खबर लिखी और जब क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल अपना काम पूरा करके दफ्तर से चले गए तब जाकर अनिल सिन्हा अपनी उस खबर को विवेक अग्रवाल के बैकग्राउंडर के साथ नत्थी करके उसे लेकर स्थानीय संपादक राहुल देव के कमरे में दाखिल हुए जहां प्रधान संपादक प्रभाष जोशी भी बैठे हुए थे। खबर माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम के गिरफ्तार होने और टाइगर मेमन की हत्या हो जाने की थी। राहुल देव ने प्रभाषजी को ब्रीफ किया कि यह खबर महाराष्ट्र सरकार के गृह विभाग के एक उच्चपदस्थ सूत्र ने दी है और खबर एकदम पक्की और सौ टका सच है। प्रभाष जोशी ने खबर पढ़ी पर वे उस खबर की सत्यता को लेकर आशंकित हुए और सतर्क हो गए। वे राहुल देव और अनिल सिन्हा से कई तरह के सवाल करने लगे। इस पर राहुल देव ने प्रभाष जोशी को खबर के पूरी तरह सच होने का पक्का भरोसा दिलाया और खबर पक्की होने की गारंटी भी ले ली। फिर क्या था, प्रभाष जोशी ने उस खबर को एप्रूव कर दिया और उसे जनसत्ता के सभी चार संस्करणों में छापने की इजाजत भी दे दी। खबरजनसत्ता के सभी चार संस्करणों में काफी प्रमुखता से छपी। खबर पहले पन्ने पर बैनर बनी। अखबार में इससे यानी बैनर से बड़ी कोई खबर होती ही नहीं है। पर अगले दिन दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेमन के बारे में लिखी गई वह सुपर एक्सक्लूसिव खबर सरासर झूठी साबित हो गई। न तो दाऊद इब्राहिम की गिरफ्तारी हुई थी और न टाइगर मेमन की हत्या ही हुई थी। खबर पूरी तरह से झूठी थी। खबर के झूठ निकल जाने से दफ्तर में सबको सांप सूंघ गया।
अगले दिन जब खबर को लेकर बवाल मचा तो बताया गया कि बंबई के पूर्व पुलिस प्रमुख रामदेव त्यागी उन दिनों महाराष्ट्र सरकार में गृह विभाग के प्रधान सचिव पद पर थे। कहते हैं उन्होंने ही तब अपनी किसी रणनीति के तहत मीडिया में यह खबर प्लांट करने की योजना बनाई थी। उन्होंने इसके लिए बंबई के अंग्रेजी, मराठी, गुजराती और हिन्दी के एक-एक अखबार को चुना और उनके संपादकों को फोन करके अपने संवाददाता को भेजने को कहा। उन चुने हुए चार अखबारों के संवाददाताओं को चुपचाप अपने दफ्तर बुलाकर यह खबर दी गई। खबर एक बंद लिफाफे में दी गई। लिफाफे में एक टाइप किया हुआ पेज था। मंत्रालय आए पत्रकारों से कहा गया कि वे उस लिफाफे को दफ्तर जाकर ही खोलें। इस खबर पर किसी अखबार को भरोसा नहीं हुआ।जनसत्ता को छोड़कर बाकी तीन अखबारों ने इस संदेहास्पद खबर को अंदर के पन्नों पर चंद लाइनों में फिलर के तौर पर लिया। पर जनसत्ता में स्थानीय संपादक राहुल देव को यह खबर एक बहुत बड़ा स्कूप यानी सुपर एक्सक्लूसिव नजर आया और उन्होंने बिना कुछ सोचे इसे पहले पेज पर बैनर बनवा दिया। इस खबर पर उन्होंने अपने इन-हाउस अखबारों इंडियन एक्सप्रेस, लोकसत्ता और समकालीन के स्थानीय संपादकों से भी चर्चा की और उन सबको भी यह खबर उपलब्ध करा दी। पर खबर को संदेहास्पद देख किसी ने भी उसे नहीं लिया।
इस झूठी खबर से जनसत्ता और अखबार के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी की खूब फजीहत हुई। बंबईजनसत्ता के स्थानीय संपादक राहुल देव ने जनसत्ता में गलत खबर प्लांट करने के लिए ऐसा वक्त चुना जब प्रधान संपादक प्रभाष जोशी बंबई दौरे पर थे और बंबईजनसत्ता के दफ्तर में मौजूद थे। जानबूझकर प्लांट की गई इस झूठी खबर को गारंटी के साथ सही बताकर प्रभाष जोशी जी से एप्रूव कराकर राहुल देव ने सारा दोष प्रधान संपादक प्रभाष जोशी पर डाल दिया। अगले दिन जब इस झूठी खबर को लेकर हंगामा मचा तो प्रभाष जोशी के एप्रूवल और हस्ताक्षर वाली खबर की वह कॉपी हर किसी को दिखाई जाने लगी। शायद यह मालिक विवेक गोयनका को भी दिखाई गई होगी।
गैंगस्टर दाऊद की गिरफ्तारी और टाइगर मेमन की हत्या की यह खबर जब दिल्ली जनसत्ता के डेस्क पर आई तो डेस्क के लोगों ने खबर की पुष्टि करने के लिए राहुल देव को बंबई फोन किया। तब राहुलजी ने भी कहा था कि खबर पक्की है और गैंग्सटर मामलों पर काफी करीब से नजर रखनेवाले गुजरात के एक बड़े और भरोसेमंद सरकारी सूत्र ने भी इस खबर को सही बताया है। फिर भी दिल्ली डेस्क ने प्रभाष जोशी से भी बात करके इस खबर को छापने की इजाजत ले ली। जनसत्ता में तो हमने यह खबर ले ली पर इंडियन एक्सप्रेस के डेस्कवालों को लाख समझाने पर भी इस खबर पर यकीन नहीं हुआ और उन्होंने यह खबर नहीं ली।इंडियन एक्सप्रेस के दिल्ली संस्करण के समाचार संपादक ने बंबई में अपने डेस्क और स्थानीय संपादक से बातचीत की पर वे लोग इसे सच मानने को बिल्कुल राजी नहीं हुए। इंडियन एक्सप्रेस के लोगों ने तो महाराष्ट्र और केंद्र सरकार के सूत्रों और गेंग्सटरों की दुनिया पर नजर रखनेवाले बंबई और दुबई के पत्रकारों तक को खड़खड़ाया पर कहीं से भी इस खबर के सही होने की पुष्टि नहीं हो पाई। नतीजा यह हुआ कि गर्दन केवल जनसत्ता और उसके प्रधान संपादक प्रभाष जोशी की ही फंसी। जानकार कहते हैं कि इस झूठी खबर ने प्रभाष जोशी को बड़ी ही खूबसूरती से निपटा दिया। साजिशकर्ताओं की चाल सफल रही और वे इसके जरिए नए मालिक विवेक गोयनका को प्रभाष जोशी के खिलाफ कनविंश करने में कामयाब हो गए। कम से कम जानकार लोग तो ऐसा ही मानते हैं।
गणेश प्रसाद झा