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नीतीश के पाला बदलने से 2024 हवा का रुख पलट सकता है: एक नजरिया

RK News by RK News
August 12, 2022
Reading Time: 1 min read
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नीतीश के पाला बदलने से 2024 हवा का रुख पलट सकता है: एक नजरिया

योगेंद्र यादव 

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‘भारत का इतिहास दरअसल बिहार का इतिहास है’, जैसे ही कॉमरेड दलीप सिंह ने सुना कि नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़कर नई सरकार बनाने के लिए आरजेडी से हाथ मिला लिया है, उनके मुंह से यही फिकरा निकला. अपनी पतंगबाजी में मशगूल, उन्होंने कहना जारी रखा :  ‘बुद्ध के जमाने से ही, इस देश में हर बड़ी उथल-पुथल बिहार से शुरु हुई है. आज नीतीश ने एक क्रांति शुरू की है जो मोदी सरकार का खात्मा कर देगी.`कॉमरेड दलीप की बात की काट करके मैं उनसे उलझना नहीं चाहता. वैसे भी, इन दिनों सेक्युलर खेमे में उम्मीद नाम की चिड़िया कहीं दिखायी ही नहीं देती. और फिर, बातों की डंक मारने में कॉमरेड साहब किसी ततैया से कम नहीं. वे ये उम्मीद भी नहीं रखते कि आप सिद्धांत की चाशनी में डूबी उनकी बड़ी-बड़ी बातों पर यकीन कर लें. वे बस आपको छेड़ देते हैं कि आपका सोचना शुरू हो जाये. और, इस मामले में वे सफल हैं.

दरअसल, बिहार में हुए सियासी तख्तापलट ने देश के राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया है. ऐन ऐसे वक्त में जब 2024 के बारे में मान लिया गया था कि उसका फैसला तो हो ही चुका है और इसी रूप में पेश भी किया जा रहा था, ठीक एक ऐसे वक्त में जब राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पद के चुनावों के बाद हार से विपक्ष के कंधे झुके हुए थे— बिहार की घटना ने जताया है कि मैदान अभी खुला हुआ है और बाजी अभी खत्म नहीं हुई है. सन् 1970 के दशक में बिहार ने ऐसे ही रास्ता दिखाया था, बिहार-आंदोलन से भारत के इतिहास में एक नये अध्याय की शुरुआत हुई जो 1977 की चुनावी क्रांति में परिणत हुआ. सन् 1990 के दशक में बिहार ने भारत की राजनीति में मंडल-युग की शुरुआत की. बिहार एक बार फिर से रास्ता दिखाता प्रतीत होता है. बिहार आंदोलन का नारा– — `अंधकार में एक प्रकाश—-जयप्रकाश, जयप्रकाश`—आज नये अर्थ धारण कर रहा है और भारत नाम के गणराज्य को उसकी हीरक जयंती पर जिन घने अंधियारे काले बादलों ने घेर रखा है उनके बीच से बिहार रौशनी की सुनहरी रेख सी चमक रहा है.

क्या मैं बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा हूं जबकि बात बस इतनी भर है कि एक राज्य में बस एक पार्टी ने अपना पाला बदल लिया है ? ऐसे किसी फैसले पर पहुंचने से पहले अच्छा होगा कि अपना वह पुराना कुर्ता और चश्मा पहन लूं जब मैं चुनाव-विज्ञानी (सेफोलॉजिस्ट) हुआ करता था और अपने उस पुराने रूप को धरकर कुछ बुनियादी गणित कर लूं.

2024 का मुकाबला बीजेपी के लिए हर हाल में मुश्किल

आइए, भारत के चुनावी मानचित्र को हम तीन पट्टियों में बांटकर देखें. इनमें से पहली पट्टी तटीय इलाकों की है जो पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक फैली हुई है. इसमें आप पंजाब और कश्मीर जैसे कुछ राज्यों को जोड़ दें तो आपको एक पूरा इलाका ऐसा दिखेगा जिसमें बीजेपी प्रभावशाली राजनीतिक ताकत नहीं है. इस इलाके में लोकसभा की कुल 190 सीटें हैं. पिछली बार इस पट्टी में बीजेपी केवल 36 सीटों पर जीती थी (अगर, बीजेपी के साथी दलों को भी शामिल कर लें तो कुल 42 सीटों पर जीत हुई). इनमें से 18 सीटें बंगाल से हाथ लगी थीं, जहां विधानसभा चुनावों में चारों खाने चित्त होने के बाद बीजेपी को 5 सीट भी मिल जाये तो माना जायेगा कि भागते भूत को लंगोटी भली. तेलंगाना में बीजेपी को कुछ सीटों का लाभ हो सकता है जबकि ओड़िशा में उसकी सीटें कम जायेंगी और यों मामला सध-पट बराबर का मान कर चलें तो बीजेपी को इस पूरी पट्टी में लगभग 25 सीटें हाथ लग सकती हैं. बीजेपी के लिए शेष बची 353 सीटों में से लगभग 250 सीटों पर जीत हासिल करना जरुरी होगा. अब यह बड़ा कठिन काम है, ये बात तो आप मानेंगे ही.

बीजेपी को ज्यादातर सीटें उसके पूर्ण प्रभुत्व वाले उस उत्तर-पश्चिमी इलाके से हाथ आयेंगी जिसमें हिंदी पट्टी के भी राज्य शामिल हैं लेकिन उत्तर-पश्चिम के इस पूरे इलाके से आपको बिहार और झारखंड को हटाकर और गुजरात को जोड़कर देखना होगा. बीजेपी ने इस इलाके में भारी जीत दर्ज की थी. इलाके में बीजेपी की सीधी टक्कर, 2014 और 2019 दोनों ही दफे उसके मुख्य प्रतिद्वन्द्वी (यूपी को छोड़ बाकी जगहों पर कांग्रेस) से हुई. बीजेपी ने इलाके की कुल 203 सीटों में 182 सीटें जीतीं (जिसमें उसके सहयोगी दलों को मिली 3 सीट शामिल है). आइए, उदारता बरतते हुए हम मानकर चलें कि इस इलाके में बीजेपी का दबदबा बना रहेगा और हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश में वोटों के छोटे-मोटे छिटकाव से पार्टी(बीजेपी) को बस मामूली सा नुकसान होगा. हालांकि, कांग्रेस के भीतर थोड़ी सी भी जान आ गई तो यह मान्यता धरी की धरी रह सकती है. ऐसा होता है तो भी बीजेपी को इलाके में 150 सीटें मिल जायेंगी— आइए, ऐसा मानकर चलें.

अब बाकी बची वह तीसरी और मध्यवर्ती पट्टी जिसमें कर्नाटक, महाराष्ट्र, झारखंड तथा बिहार ( इसमें असम, त्रिपुरा, मेघालय और मणिपुर जोड़ लें) को शामिल मान सकते हैं क्योंकि इस इलाके में बीजेपी को आपस में बंटे हुए विपक्ष का सामना करना पड़ा है. साल 2019 में बीजेपी ने इस पट्टी में 130 सीटें जीतीं थीं, जिसमें 88 सीटें सीधे उसकी झोली में गई थीं. इस पट्टी में बीजेपी के साथी दलों के कारण हार-जीत के आंकड़े में बड़ा अन्तर आया : शिवसेना को 18 सीटें मिली थीं, जदयू और एलजेपी को क्रमशः 16 और 6 सीटें. यह बात तो अब जाहिर ही है कि अबकी बार यह तीसरी पट्टी बीजेपी के लिए सिरदर्दी का कारण बनने वाली है.

कर्नाटक के हाथ से खिसकने की हालत में बीजेपी के लिए इस राज्य में 28 में से 25 सीटें फिर से जीत पाना नामुमकिन जान पड़ रहा है. अगर कांग्रेस तथा जेडी(एस) के बीच सहमति बन जाती है तो बीजेपी को इस बार मिलने जा रही सीटों की संख्या पहले के मुकाबले आधी हो सकती है. (नीतीश कुमार के पाला बदल का देवगौड़ा ने बिना देरी किए स्वागत किया है, इसे भावी घटनाक्रम के संकेत के रुप में देखा जा सकता है) उद्धव ठाकरे की सरकार के पतन की घटना से अनजाने ही सही लेकिन अब यह बात तय लगती है कि 2024 में महाविकास अघाडी एकजुट होकर चुनाव लड़ेगी. अगर ऐसा होता है तो बीजेपी-शिन्दे की जोड़ी के लिए बीजेपी-शिवसेना गठबंधन का 2019 वाला प्रदर्शन दोहरा पाना मुश्किल है. तब बीजेपी-शिवसेना ने 48 में से 41 सीटें जीती थीं. अगर हम मानकर चलें कि बीजेपी असम तथा पर्वतीय राज्यों में फिर से 2019 वाला प्रदर्शन दोहरा लेगी तब भी बीजेपी को इस तीसरी पट्टी में 2019 के मुकाबले कम से कम 10 सीटों का घाटा होने जा रहा है और अगर उसके साथी दलों को भी शामिल मानकर चलें तो सीटों का घाटा 25 के आंकड़े को पहुंच सकता है.

सारा फर्क बिहार से पड़ता है

हमने अब तक लोकसभा की 503 सीटों की गिनती कर ली. अगर हम सच्चाई के नजदीक जान पड़ती इस अटकल पच्चीसी की ठीक मानकर चलें तो बीजेपी को उसके मौजूदा दबदबे की हालत में भी 503 सीटों में 235 सीट से ज्यादा कुछ हाथ नहीं लगने वाला.

और, इसी कारण बिहार बहुत महत्वपूर्ण हो उठा है. बीजेपी के लिए बिहार की सभी 40 सीटें जीतना जरुरी है या ज्यादा ठीक होगा यह कहना कि बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने के लिए बीजेपी को 40 में से 37 सीटें जीतनी होंगी. पिछली बार बीजेपी ने नीतीश कुमार और स्व.रामविलास पासवान को साथ लेकर ऐसा कर दिखाया था. तब एनडीए ने एक सीट को छोड़कर बाकी सारी सीटें झटक ली थीः बीजेपी को 17 सीट मिली, 16 सीट जद(यू) की झोली में गई और एलजेपी को 6 सीट मिली थी. इतनी सीटें जीत पाना इस बार बहुत मुश्किल था और नीतीश कुमार के पाला बदल लेने से अब असंभव हो चुका है. बीजेपी के पक्ष में लहर चलने की जगह अब आप कह सकते हैं कि हवा का रुख उलटकर आरजेडी-जेडी(यू) के नेतृत्व वाले महागठबंधन पक्ष में हो सकता है जिसमें कांग्रेस और वामपंथी दलों के शामिल होने की संभावना है.

आइए, बिहार के चुनावी गणित को और ज्यादा नजदीक से समझें. अगर लोकसभा के चुनाव तक नीतीश-तेजस्वी का गठजोड़ कायम रहता है तो बहुत मुमकिन है चुनावी मुकाबला महागठबंधन (आरजेडी+जेडयू+कांग्रेस+वाम) और एनडीए (बीजेपी+एलजेपी) के बीच हो. सूबे में इस किस्म के किसी चुनावी मुकाबले या फिर आरजेडी-जेडी(यू)) बनाम बीजेपी की सीधी चुनावी टक्कर की नजीर नहीं मिलती. लेकिन, हाल के कुछ चुनावों पर नजर डालने से इस बात का एक अच्छा अंदाजा हो जाता है कि किस पार्टी की चुनावी ताकत कितनी है. बीजेपी सबसे ज्यादा वोट पाने वाली पार्टी बनकर उभरी है: इसका अपना वोट शेयर विधानसभा चुनावों में 20 प्रतिशत तथा लोकसभा के चुनावों में 25 प्रतिशत का रहा है. आरजेडी का वोटशेयर पिछले विधानसभा चुनाव में 23 प्रतिशत का रहा था लेकिन लोकसभा के चुनावों में कुछ अंकों की गिरावट रही. जेडी(यू) का वोटशेयर विधानसभा और लोकसभा दोनों ही चुनावों में लगभग 15 प्रतिशत का रहा है. अन्य दलों का वोटशेयर 10 प्रतिशत से कम रहा है जैसे, कांग्रेस का 7-9 प्रतिशत, वाम दलों का 4-5 प्रतिशत और एलजेपी का 6 प्रतिशत.

तो फिर जाहिर है, इस मोटे गणित के आधार पर माना जा सकता है कि महागठबंधन को 45 प्रतिशत का वोटशेयर हासिल है और एनडीए अपने 35 प्रतिशत के वोटशेयर के साथ(यह मानते हुए कि बीजेपी एलजेपी तथा कुछ अन्य छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ेगी) इससे पीछे ही रहने वाला है. अगर हम इन दो गठबंधनों के सामाजिक आधार पर गौर करें तो दिखेगा कि चुनावी लड़ाई अगड़ा बनाम पिछड़ा की होने जा रही है और बिहार जैसे राज्य में इसका बस एक ही परिणाम होने वाला हैः पिछड़ों की धमाकेदार जीत. इसका मतलब हुआ, चुनावी मुकाबले में बीजेपी खेमे का अपनी कनात-तंबू समेत उखड़ जाना. अगर बीजेपी के विरोधी पिछले लोकसभा के चुनावों में अपने अस्तित्व बचाने को तरस गये थे तो इस बार बीजेपी को बिहार में चंद सीटों के लिए भी तरसना पड़ सकता है.

बीजेपी के सामने पहाड़ चढ़ने जैसी कठिन चुनौती

आइए, जर मध्यवर्ती पट्टी में बीजेपी के चुनावी प्रदर्शन पर लौटें जहां उसे 150 सीटें हाथ लगने की बात ऊपर कही गई थी. यह मानकर कि बीजेपी और उसके साथी दलों को बिहार में 5-10 सीटें ही हाथ लग सकती हैं, इस पूरे इलाके (मध्यवर्ती पट्टी) में बीजेपी की सीटों की संख्या 88 से घटकर 65 के आंकड़े पर आ सकती है ( या फिर बीजेपी और उसके साथी दलों को एकसाथ मिलाकर देखें तो एक नाटकीय गिरावट के साथ सीटों का आंकड़ा 130 से खिसककर 75 पर आ जाना है.

अब जरा गौर कीजिए कि राष्ट्रीय फलक पर क्या तस्वीर बनती है. अगर ऊपर की अटकलपच्चीसी में आपको जरा भी दम लगे तो फिर यह मान पाना मुश्किल है बीजेपी को मिलने जा रही कुल सीटों की संख्या 240 के पार भी पहुंच सकती है, यानी बहुमत का आंकड़ा(272 सीट) उससे दूर ही रहने वाला है. बिहार में होने जा रहे 30 सीटों के नुकसान से इतना बड़ा अन्तर पैदा हो जायेगा.

क्या एनडीए गठबंधन इस घाटे की भरपायी कर पायेगा ? बात ये है कि एनडीए में अब बस एनडीए का नाम भर शेष है, उसके भीतर कुछ और नहीं बचा. अकाली दल निकल चुका, एआईएडीएमके में दो फाड़ हो चुके, शिवसेना को तो खैर अगवा ही कर लिया गया और अब जेडी(यू) के निकल जाने से एनडीए में ज्यादा कुछ नहीं बचा सिवाय पूर्वोत्तर के छोटे-मोटे दलों और पूर्ववर्ती सहयोगियों से छिटके धड़ों के. इनके सहारे ज्यादा से ज्यादा 10-15 सीटें हाथ लग सकती हैं लेकिन इतनी नहीं कि बीजेपी बहुमत के आंकड़े तक पहुंच जाये. साथी दलों को हजम कर जाने की बीजेपी की नीति के आत्मघाती नतीजे अब आखिर दिखने लगे हैं.

कॉमरेड साहब अब मुस्कुरा रहे थे, पोपले मुंह पर पसरी मुस्कान मानो ये जता रही थी कि देखा! हमने तो पहले बता दिया था तुम्हें! मैंने जल्दी-जल्दी में सफाई पेश की : ‘मैं कोई चुनावी नतीजों की भविष्यवाणी नहीं कर रहा, वह भी तब जब चुनाव 22 महीने दूर हैं. ऐसा करना मूर्खता है. इस बुनियादी किस्म के गणित से बस इतना भर पता चलता है कि बिहार में हुए बदलाव से राष्ट्रीय फलक पर शक्ति-संतुलन का पलड़ा कैसे ऊपर-नीचे जा सकता है. बीजेपी के झांसे में ना आयें, साल 2024 के चुनावी मुकाबले का मैदान अब भी बीजेपी के लिए बहुत कठिन साबित होने वाला है. बीजेपी को बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने के लिए बालाकोट जैसा ही कोई कारनामा अंजाम देना होगा. हां, विपक्ष खुद ही, एक किनारे होकर बीजेपी को रास्ता दे दे तो अलग बात है.’

लेखक के निजी विचार है 

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