भारत में महिलाएं इसलिए श्रम क्षेत्र का हिस्सा नहीं बन पा रही हैं क्योंकि एक तो उन्हें पैसा बहुत कम मिलता है और उन्हें लैंगिक भेदभाव भी झेलना पड़ता है. मानवाधिकार संगठन ऑक्सफैम ने अपनी ताजा रिपोर्ट में यह बात कही है.
ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि भारत अगर महिलाओं को श्रम क्षेत्र में शामिल करना चाहता है तो सरकार को बेहतर वेतन, प्रशिक्षण और नौकरियों में आरक्षण जैसी सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी. ‘इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022′ शीर्षक से जारी की गई यह रिपोर्ट सुझाव देती है कि नियोक्ताओं को भी महिलाओं को काम पर रखने के लिए प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है.
भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2021 में भारतीय श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 25 प्रतिशत थी. दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका में यह सबसे कम है. 2020-21 के भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ 25.1 प्रतिशत महिलाएं श्रम शक्ति का हिस्सा हैं. यह 2004-05 से भी कम हो गया है जबकि 42.7 प्रतिशत महिलाएं काम कर रही थीं।
रिपोर्ट कहती है कि इन वर्षों में महिलाओं का काम छोड़ जाना एक चिंता का विषय है जबकि इस दौरान भारत में तेज आर्थिक वृद्धि हुई है. बीते दो साल में कोरोना वायरस महामारी ने भी महिलाओं को बड़े पैमाने पर श्रम बाजार से बाहर कर दिया है क्योंकि नौकरियां कम हो गईं और जिन लोगों की नौकरियां इस दौरान गईं, उनमें महिलाएं ज्यादा थीं.
महिलाओं के साथ भेदभाव जारी
ऑक्सफैम इंडिया के प्रमुख अमिताभ बेहर कहते हैं कि महिलाओं का भेदभाव एक बड़ी समस्या है. एक बयान में बेहर ने कहा, “यह रिपोर्ट दिखाती है कि अगर पुरुष और महिलाएं समान स्तर पर शुरुआत करते हैं तो महिलाओं को आर्थिक क्षेत्र में भेदभाव झेलना होगा. वह वेतन में पीछे छूट जाएंगी और अस्थायी काम या फिर स्वरोजगार में भी आर्थिक रूप से पीछे छूट जाएंगी.”
रिपोर्ट के मुताबिक 98 प्रतिशत गैरबराबरी की वजह लैंगिक भेदभाव होता है. बाकी दो प्रतिशत शिक्षा और अनुभव आदि के कारण हो सकता है. रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि समाज के अन्य तबकों को भी भेदभाव झेलना पड़ता है.
पिछले महीने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी महिलाओं को काम करने के लिए बढ़ावा देने की जरूरत का जिक्र किया था. एक भाषण में उन्होंने राज्यों से आग्रह किया था कि काम के घंटों को लचीला रखा जाए ताकि महिलाओं को श्रम शक्ति का हिस्सा बनाया जा सके. उन्होंने कहा था कि अपनी नारी शक्ति का इस्तेमाल किया जाए तो “भारत अपने आर्थिक लक्ष्यों तक” जल्दी पहुंच सकता है.
ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि बड़ी संख्या में महिलाएं रोजगार इसलिए नहीं कर पाती हैं क्योंकि उनके ऊपर ‘पारिवारिक जिम्मेदारियां’ होती हैं और उन्हें सामाजिक नियम-कायदों को मानना पड़ता है.
भारत में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव को उजागर करती ऐसी रपटें पहले भी आती रही हैं. यह एक जाना-माना तथ्य है कि भारत में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कम काम करती हैं और अधिकतर महिलाओं को कार्यस्थल पर शोषण अथवा भेदभाव से गुजरना पड़ता है. इसके अलावा एक समस्या उनकी घरेलू और सामाजिक जिम्मेदारियां भी हैं जो उन्हें काम करने से हतोत्साहित करती हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, “पितृसत्ता के कारण ही पुरुषों के समान और यहां तक कि उनसे बेहतर क्षमता और कौशल के बावजूद महिलाएं श्रम बाजार से बाहर रहती हैं और समय के साथ इसमें कोई सुधार नहीं हुआ है.”
हजारों रुपये का फर्क है
ऑक्सफैम के शोधकर्ताओं ने इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए 2004 से 2020 के बीच के सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण किया है. उन्होंने अलग-अलग तबकों को नौकरियां, वेतनमान, स्वास्थ्य, कृषि कर्ज आदि का अध्ययन किया. इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि हर महीने पुरुष महिलाओं से 4,000 रुपये ज्यादा कमाते हैं. एक गैर मुस्लिम और मुस्लिम के बीच यह अंतर 7,000 रुपये का है जबकि दलित और आदिवासी बाकी लोगों से महीनावार 5,000 रुपये कम कमाते हैं.
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यह रिपोर्ट कहती है, “महिलाओं के अलावा ऐतिहासिक रूप से दमित समुदाय जैसे दलित और आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यक जैसे कि मुसलमान भी नौकरी खोजने, रोजी-रोटी कमाने और कृषि आदि क्षेत्र में कर्जा पाने के लिए भेदभाव का सामना करते हैं.” रिपोर्ट बताती है कि कोविड-19 महामारी के दौरान बेरोजगारी में सबसे ज्यादा वृद्धि (17 प्रतिशत) मुसलमानों के बीच हुई.
बेहर स्पष्ट करते हैं कि श्रम बाजार में भेदभाव का अर्थ क्या है. वह कहते हैं, “भेदभाव का अर्थ है कि समान क्षमता वाले लोगों के साथ अलग-अलग तरह का व्यवहार किया जाए और इसकी वजह उनकी पहचान या सामाजिक पृष्ठभूमि हो. महिलाओं और अन्य सामाजिक तबकों में गैरबराबरी सिर्फ गरीबी, अनुभव की कमी और शिक्षा तक उनकी कम पहुंच ही नहीं है बल्कि भेदभाव भी है.”