शकील अख्तर
सब जानते हुए भी एक बार कोई यह नहीं कहेगा कि कांग्रेस के चुनाव दूसरी सभी पार्टियों से अलग, उचित तौर तरीके से होते हैं या हो रहे हैं। मीडिया से कोई यह नहीं कह रहा कि भाजपा भी ऐसे संगठन चुनाव करके बताएं। भाजपा में ऐसे कभी नहीं हो सकतॉ और न हो रहे है। मगर इतना तो कह सकता है कि कांग्रेस के इन चुनावों में हमने अपने सबसे छिद्रान्वेषी रिपोर्टरों को लगाया मगर वे भी कोई कमी नहीं ढूंढ पाए। लेकिन मीडिया सास बना हुआ है। कुछ न कुछ तो कहना है। तो कह रहा है कि ….
कांग्रेस की अग्नि परीक्षा ली जा रही है। मगर उसमें खरा उतरने पर भी क्लीन चिट की कोई संभावना नहीं है। कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव इतना विधिवत, पारदर्शी हो रहा है कि उसमें नियमों के स्तर पर कोई एक गलती भी नहीं निकाल पा रहा है। कांग्रेस के ही जो नेता चुनाव प्रक्रिया और मतदता सूचि पर सवाल उठा रहे थे वे भी कांग्रेस मुख्यालय आकर खड़गे के समर्थन में नामांकन पत्र पर प्रस्तावक बन गए। मगर सवाल है कि खत्म नहीं हो रहे।
क्यों? क्योंकि खुद कांग्रेस के नेताओं सहित, विरोधी भाजपा, अन्य विपक्षी दल और मीडिया ने उसे साफ्ट टारगेट ( कमजोर, प्रतिरोध न करने वाला) समझ लिया है। यह कांग्रेस की अपनी कमी है। अति उदारवाद, आदर्श से यह स्थिति बनी है। समाज में उतना ही आदर्शवाद चलता है जितना समाज में खुद होता है। मगर राहुल गांधी इस बात को समझने को तैयार नहीं हैं।
वे गांधी जी वाले सिद्धांत पर काम कर रहे हैं। कि जितना मैं सत्यनिष्ठ हूं उतना ही सब को बनाऊंगा। लेकिन सामान्य मानव में परिवर्तन की गति बहुत धीमी है। और इसीलिए आदर्श और यथार्थ के बीच गहरी खाई है। मगर उसे ऐसा ही नहीं छोड़ा जा सकता। इसलिए दुनिया भर में नेता, दार्शनिक, लेखक, विचारक इसे भरने की कोशिश करते रहते हैं। सुकरात की तरह जहर पीकर भी।
राहुल को आप किसी भी श्रेणी में न रखें। मगर वे एक सबसे नए अध्येता और पथिक के तौर पर यह काम लगातार कर रहे हैं। 18 बरस से। उन्होंने यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई के आंतरिक चुनाव पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह की देखरेख में करवाए। अभी भी अगर इस चुनाव आयोग की विश्वसनीयता वैसी ही होती तो राहुल जरूर कहते हैं कि उन्हें अपना एक पर्यवेक्षक कांग्रेस के इस चुनाव में भेजना चाहिए। मगर आज तो हालत यह है कि अगर पर्यवेक्षक आया तो वह अपने साथ ईवीएम भी लेता आएगा। और साथ में फरमान भी की किस को जिताना है।
तो खैर यह सब कांग्रेस की अपनी कमजोरी की वजह से है। नहीं तो एक समय ऐसा था कि जब इन्दिरा गांधी ने कहा नहीं, मगर संदेश यह गया कि इन्दिरा जी ऐसा चाहती हैं तो बाल ठाकरे खुद मुम्बई आकाशवाणी जाकर इन्दिरा जी का समर्थन करके आए। 1975 में। राजनीति ऐसे ही होती है। आप जब कुछ करते हैं तो जाहिर है उसका समर्थन चाहते हैं। और उसके लिए प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रयास भी करते हैं। ऐसा नहीं होता कि आप कोई फैसला लें और उसे हवा में छोड़ दे कि जो करे (समर्थन) उसका भी भला और जो न करे उसका भी भला।
राहुल की भलमनसाहत की राजनीति देश में एक बिल्कुल नया प्रयोग है। कड़ी मेहनत, मजबूत इरादे और नई पहल करने के दुस्साहस की हद तक। समय बताएगा इसके नतीजों को। मगर एक बात राहुल को याद रखना चाहिए कि वे राजनीति में काम कर रहे हैं। और एक पार्टी के साथ। उनका हर फैसला पार्टी पर प्रभाव डालेगा और साथ ही उसके हजारों नेताओं और कार्यकर्ताओं के राजनीतिक जीवन पर भी।
यहां जनता का मुद्दा अलग है। क्योंकि उसे ऐसे विरल, विकट नेताओं से हमेशा फायदा ही होता है। सत्ता उनके डर से जनता की तरफ ज्यादा आती है। मगर पार्टी को भी मजबूत होना चाहिए। एक भी रहना चाहिए। टूट से हर एक को खतरा लगना चाहिए कि पार्टी की टूट उन्हें भी कमजोर करेगी। खूंटा (केन्द्र) इतना मजबूत होना चाहिए कि उससे अलग हो जाने के बाद अहसास हो कि हम कहीं के नहीं रहे।
लालू प्रसाद यादव ने यह राजनीति करके दिखाई है। नीतीश को वापस लौटना पड़ा। यह कोई छोटी घटना नहीं है। मोदी जैसी ताकतवर सत्ता को छोड़कर वापस आना बहुत हिम्मत का काम है। और यह हिम्मत नीतीश को लालू के साथ हमेशा खड़ी जनता से मिली। मोदी राज में लालू ने आठ साल में दो बार सरकार बना ली। उधर दूसरी तरफ करीब करीब उसी रूप के दूसरे राज्य उत्तर प्रदेश में अखिलेश लगातार दूसरी बार हार गए। यह तुलना इसलिए कि अखिलेश की पार्टी का आधार भी करीब करीब लालू की पार्टी जैसा ही है। मगर फर्क दोनों के साहस और खतरे लेने की क्षमताओं पर है। लालू इतने लंबे जेल के बाद भी नहीं डरे। मगर मुलायम और अखिलेश मुकदमे चलने की संभावनाओं से ही डर गए।
लालू का अस्तित्व अभी भी बना हुआ है। और उम्र, बीमारियों, वापस जेल जाने की आशंकाओं के बावजूद और मजबूत होता जा रहा है। आज विपक्ष की एकता की वे धूरी बन रहे हैं। यह सब क्यों? इसकी एक ही वजह है कि वे अनर्गल आलोचनाओं की परवाह नहीं करते। उनका उसी भाषा में जवाब देते हैं। भाजपा और संघ को इतना तुर्की ब तुर्की जवाब किसी और ने नहीं दिया होगा। इसलिए भाजपा, संघ और मीडिया भी उन पर इस तरह हमले नहीं करती जैसा कांग्रेस पर करती रहती है।
कांग्रेस की तो हर बात पर शक। लोग कहते हैं उसी को आधार बना लेते हैं। ऐसे ही लोगों के कहने पर सीता को अग्नि परीक्षा में खरा उतरने के बावजूद लोकलाज में वन भेजना पड़ा था। कांग्रेस भी बाकायदा सूचना देकर, नोटिफिकेशन निकालकर, इलेक्शन अथारटी बनाकर चुनाव करवा रही है। और पहली बार नहीं। हर बार ऐसे ही करवाएं हैं। ये आज जो पत्रकार किसी ने किसी कमी को सूंघने के लिए रोज इलेक्शन अथारटी के दफ्तर के आसपास चक्कर लगाते हैं वही हैं जिन्होने 2017 के भी कांग्रेस के चुनाव कवर किए थे।
मगर उस समय भी कुछ नहीं निकला। और इससे पहले जब सोनिया के खिलाफ जितेन्द्र प्रसाद लड़े। मतदान हुआ तब भी। न इससे पहले सीताराम केसरी के खिलाफ जब शरद पवार और राजेश पायलट लड़े तब भी। यह सब 25- 30 साल के बीच की घटनाएं हैं। तमाम पत्रकार मौजूद हैं। मगर किसी एक की भी आंखों देखी गवाही यह मीडिया नहीं दिला सकता की गड़बड़ी हुई। मगर सब जानते हुए भी एक बार भी यह नहीं कहेगा कांग्रेस के चुनाव दूसरी सभी पार्टियों से अलग, उचित तौर तरीके से होते हैं। या हो रहे हैं। मीडिया से कोई यह नहीं कह रहा कि कहे कि भाजपा में ऐसे चुनाव नहीं हो सकते। नहीं हुए कभी। मगर इतना तो कह सकता है कि
कांग्रेस के इन चुनावों में हमने अपने सबसे छिद्रान्वेषी रिपोर्टरों को लगाया मगर वे भी कोई कमी नहीं ढूंढ पाए।
लेकिन मीडिया तो सास बना हुआ है। कुछ न कुछ तो कहना है। तो कह रहा है कि केरल के कांग्रेस अध्यक्ष थरुर के विरोधी! अरे भैया केरल के सांसद (थरुर) चुनाव लड़ रहे हैं। और आप वहां के प्रदेश अध्यक्ष से चाहते हैं वह चुप रहे! उसे बताना तो पड़ेगा कि थरुर को लोकसभा के लिए टिकट देने की अनुशंसा जरूर प्रदेश कांग्रेस ने की थी। मगर अध्यक्ष का चुनाव लड़ने के बारे में उन्होंने हमसे कोई बात नहीं की। अगर कोई यह कह रहा है कि हमारी सहमति से लड़ रहे हैं तो यह गलत बात है। मीडिया कह रहा है कि वे कैसे कह सकते हैं? अरे भाई चुनाव हैं। कोई कानून थोड़ी है कि कोई कुछ बोलेगा ही नहीं। कांग्रेस ने एक एडवाइजरी इश्यू की है। कोई कांग्रेस संविधान में नहीं लिखा कि अगर कोई प्रत्याशी गलत इम्प्रेशन देता है तो उसके राज्य की प्रदेश कमेटी कुछ नहीं कहेगी।
मीडिया खुले आम थरुर का प्रचार कर रहा है। अख़बार में फोटो छापता है तो पहले थरुर का फिर खड़गे का। कोई उनसे पूछे कि भाजपा सरकार की कोई उपलब्धि बताने वाली खबर के साथ वे पहले गडकरी का, फिर राजनाथ का, फिर अमित शाह का और अंत में मोदी का छाप सकते हैं? क्या रिएक्शन होगा यह बताने की जरूरत है? मगर कांग्रेस में तो किसी को भी किसी पर प्रमुखता दे सकते हैं। यहां कोई डर नहीं है। इसलिए प्रीत तो छोड़िए कोई नियम भी नहीं है। कांग्रेस को अपनी इस छवि को तोड़ना होगा कि जो चाहे वह कुछ भी कह सकता है। उसे सख्ती से बताना होगा कि जितनी छूट आप भाजपा से ले सकते हैं। सिर्फ उतनी ही। एक
इंच भी ज्यादा नहीं। तभी राहुल की, कांग्रेस की इमेज दोबारा बनेगी।
नहीं तो कांग्रेस के चुनाव हो जाएंगे। यात्रा हो जाएगी। मगर मीडिया का रवैया नहीं बदलेगा। गए आठ साल बीति! दशहरे का दिन है। कांग्रेस को याद रखना चाहिए। जो राम ने कहा था “ विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीति।। “