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यूपी में गैर जाटव ने भी भाजपा को धूल चटाने में कसर नहीं छोड़ी
नज़रिया:Dr.Ravikant

RK News by RK News
June 15, 2024
Reading Time: 1 min read
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2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 240 सीटों पर सिमट गई। हालांकि एनडीए को मिली 293 सीटों पर जीत के साथ नरेंद्र मोदी सरकार बनाने में कामयाब रहे। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह मोदी के अहंकार की हार है। इससे मोदी का गुरुर टूटा है। लेकिन भारत जैसे सामंती समाज में क्या अहंकार को इतना निकृष्ट माना जा सकता है? 
भाजपा के पास पूंजी, प्रबंध और प्रचार तंत्र की व्यापक मौजूदगी के बावजूद नरेन्द्र मोदी की हार का असली कारण क्या है? यह भी सच है कि राम मंदिर राजनीतिक मुद्दा नहीं बनने के बावजूद जनवरी-फरवरी में विपक्ष बहुत उत्साहित नहीं था। विपक्ष ना तो एकजुट था और ना ही उसके पास संसाधन थे। कांग्रेस का बैंक खाता सील कर दिया गया था। चुनाव के पहले से लेकर चुनाव के दरमियान भी विपक्षी नेताओं पर ईडी और इनकम टैक्स की छापेमारी होती रही। 
अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन जैसे दो मुख्यमंत्री जेल भेज दिए गए। सैकड़ों विपक्षी नेताओं को ईडी के डर और प्रलोभन के जरिए भाजपा में शामिल कराया जाता रहा। यानि विपक्ष को निहत्था बनाकर नरेंद्र मोदी 400 सीटें जीतने के इरादे से चुनावी मैदान में दाखिल हुए। इसी उत्साह या अहंकार में नरेंद्र मोदी ने अबकी बार 400 पार का नारा दिया। 400 सीटें क्यों जीतना है? इस पर भाजपा के अनेक नेताओं और प्रत्याशियों ने बेबाक बयान दिए। उनका कहना था कि संविधान बदलने के लिए इतना बड़ा बहुमत चाहिए। संविधान बदलने का मतलब है कि हिंदू राष्ट्र बनाना और मनुस्मृति के आधार पर नया संविधान लिखा जाना
भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण यही नारा बना। संविधान बदलने की बात पर सबसे ज्यादा प्रतिक्रिया दलित समाज में हुई। इसका असर आदिवासी और पिछड़े समाज में भी हुआ। लेकिन दलितों के लिए यह सिर्फ अधिकारों का नहीं बल्कि भावुकता का भी मुद्दा बना। उनके लिए संविधान सिर्फ एक कानून की किताब नहीं, केवल अधिकारों की गारंटी नहीं बल्कि बाबा साहब अंबेडकर के शब्दों और सपनों का संग्रह भी है। 
यह भी गौरतलब है कि पिछले एक दशक से जिन राज्यों में दलित समाज के बीच बहुजन नायकों की जयंतियां मनाई जा रही हैं, संविधान की प्रस्तावना दोहराई जा रही है, वहां इस बार भाजपा को शिकस्त झेलनी पड़ी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश है। देश के सबसे बड़े सूबे की 80 लोकसभा सीटों में 17 सीटें अनुसूचित वर्ग के लिए आरक्षित हैं। यूपी में दलित आबादी 21.5 फीसदी है। इसमें आधी आबादी करीब 11 फीसदी केवल जाटव समाज है। 
जाटव समाज बीएसपी का मूल समर्थक रहा है। लेकिन इस चुनाव में मायावती एक भी सीट नहीं जीत सकीं। उनका वोट प्रतिशत भी 1995 की स्थिति में पहुंच गया। इस बार बसपा को केवल 9.43 फीसदी वोट मिले। बसपा किसी सीट पर दूसरे स्थान पर भी नहीं आ सकी। इसका बड़ा कारण मायावती द्वारा भतीजे आकाश आनंद को बीच चुनाव में नेशनल कोऑर्डिनेटर और उत्तराधिकारी पदों से हटाया जाना रहा। जाटव समाज का पढ़ा लिखा और जागरूक तबका संविधान बदलने की मुनादी करने वाली भाजपा को हराने के लिए बसपा को छोड़कर इंडिया एलाइंस की ओर चला गया। हालांकि इसकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। 
लेकिन इस बार बड़ा प्रभाव गैर जाटव वोट में दिखाई दिया। यह समाज भाजपा से निकलकर बड़े पैमाने पर इंडिया गठबंधन के साथ गया। इसकी मूल वजह संविधान बदलने का नारा बना। गैर-जाटव जातियों में कोरी, पासी और धोबी; ये तीन जातियां विशेष रूप से इंडिया गठबंधन के साथ आईं। इसके अतिरिक्त वाल्मीकि, सोनकर, धानुक, मुसहर और खरवार आदि जातियों का एक हिस्सा भाजपा से निकलकर इंडिया गठबंधन के साथ गया। यही कारण है कि 2019 में सुरक्षित 17 सीटों में से 14 सीटें जीतने वाली भाजपा को इस बार बड़ा झटका लगा। इस चुनाव में विपक्ष को 9 सुरक्षित सीटों पर जीत मिली है। इनमें 7 पर सपा, 1 पर कांग्रेस और नगीना सीट पर आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद चुनाव जीते। जाहिर तौर पर सामान्य सीटों पर भी दलित वोट के निकलने से भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ।
संविधान बचाने के इस चुनाव को सबसे ज्यादा राहुल गांधी ने प्रभावित किया। 1989 से कांग्रेस पार्टी यूपी की सत्ता से बाहर है। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बड़ी सफलता मिली थी। इस चुनाव में कांग्रेस ने यूपी में 18.2 फ़ीसदी वोट हासिल करके 21 सीटों पर जीत हासिल की थी। जबकि 2014 में वह केवल अमेठी और रायबरेली सीट पर ही जीत सकी। 2019 में राहुल गांधी भी अमेठी हार गए। केवल सोनिया गांधी ही अपनी सीट बचा सकीं

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राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी को यूपी की जनता ने बहुत पसंद किया। यही कारण है कि जहां कांग्रेस ने 6 सीटें जीतीं, वहीं सपा ने 37 सीटों पर जीत हासिल की। 2004 में मुलायम सिंह यादव ने 36 सीटों पर जीत हासिल की थी। अखिलेश यादव ने इस बार अपने पिता का रिकॉर्ड तोड़ा। सपा के प्रति दलितों की नाराजगी इस बार नहीं दिखाई दी। इसके दो कारण हैं। अखिलेश यादव ने पहली बार चुनाव में बाबा साहब अंबेडकर का नाम लिया और संविधान बचाने के मुद्दे को उठाया। इसके अतिरिक्त उन्होंने जाटव और पासी समाज को अपेक्षा से अधिक प्रतिनिधित्व दिया। मेरठ और अयोध्या सामान्य सीटों पर उन्होंने दलित प्रत्याशी मैदान में उतारे। अयोध्या से अवधेश प्रसाद पासी ने पड़े बहुमत से जीत हासिल की। इस बार अयोध्या में नया नारा दिया गया- ‘ना मथुरा ना काशी, अयोध्या में अवधेश पासी!’
संविधान बचाने का मुद्दा इतना असरदार था कि दलित समाज की दो बड़ी जातियां-कोरी और धोबी को इंडिया गठबंधन द्वारा एक भी टिकट नहीं दिए जाने के बावजूद बड़े पैमाने पर इन जातियों ने सपा और कांग्रेस को वोट दिया। यही कारण है कि यूपी में 75 सीटें जीतने का सपना देखने वाली भाजपा केवल 33 सीटों पर सिमट गई। 70 फ़ीसदी से अधिक दलित वोट भाजपा के विरोध में गया। यह भी गौरतलब है कि दलित उत्पीड़न के मुद्दों पर बहुत मुखर रहे चंद्रशेखर आजाद को नगीना सीट पर जीत मिली। 
एक तरफ मायावती की राजनीति का अवसान दिख रहा है तो चंद्रशेखर आजाद की जीत को दलित राजनीति के नए विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। मायावती का जाटव वोट आने वाले समय में जाटव समाज से आने वाले चंद्रशेखर आजाद के साथ शिफ्ट हो सकता है। जबकि गैर जाटव दलित वोट अपने लिए बेहतर विकल्प की तलाश में है। पिछले सालों में गैर जाटव दलित वोट बसपा को छोड़कर भाजपा की ओर चला गया था। यह पहला चुनाव है जब गैर जाटव वोट कांग्रेस और राहुल गांधी से प्रभावित नजर आ रहा है। अगर कांग्रेस ने गैर जाटव जातियों को उत्तर प्रदेश में सम्मान और उचित प्रतिनिधित्व दिया तो कांग्रेस का यह आधार वोट बन सकता है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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