जुलाई 2019 में द इंडियन एक्सप्रेस के लिए पूर्वोत्तर संवाददाता के रूप में काम करते हुए, मैंने एक न्यूज स्टोरी ब्रेक की थी कि पुलिस ने असम (Assam) में दस कवियों के खिलाफ मामला दर्ज किया है. उनमें से ज्यादातर बंगाली मूल के मुसलमान थे. उनकी अपनी बोली में लिखी गई कविताओं में कथित तौर पर असमिया लोगों के लिए नफरत का जिक्र था.
देर रात मिली सूचना और पुलिस से कन्फर्म होने के बाद जो छोटी सी स्टोरी की थी उसके बाद कई फॉलो-अप स्टोरी हुई. इसके बाद कई न्यूज पेपर, सोशल मीडिया और भी कई जगहों पर कवियों पर आपराधिक मामला दर्ज किए जाने के खिलाफ रिपोर्ट्स, आर्टिकल लिखे गए.
असम में बंगाली मूल के मुसलमानों को अक्सर अपमानजनक तौर से ‘मिया’ कहा जाता है. यह एक ऐसा शब्द बन गया है जो उनकी सांस्कृतिक पहचान के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाने लगा है.
जातीय समुदायों पर सख्ती की कहानी का दोहराव
उन आरोपियों में से एक ‘मिया’ कवि जिनका मैंने इंटरव्यू किया था ने मुझसे पूछा था कि अपने समुदाय की दुर्दशा के बारे में कविता लिखना कैसे गैरकानूनी माना जा सकता है. आज, असम में एक कथित ‘मिया संग्रहालय’ को लेकर हुए हालिया विवाद को देखते हुए, मैं खुद को इसी तरह के विचारों से जूझता हुआ पाता हूं कि- यह कितना आपराधिक हो सकता है, अगर कोई रोजमर्रा में इस्तेमाल की जाने वाली कुछ चीजों की प्रदर्शनी करने का सोचता है और इसे अपने समुदाय का संग्रहालय बताता है ?
हालांकि, असम में, जहां आइडेंटिटी और मूल निवासियों को लेकर लडाइयां अक्सर होती रहती हैं वहां ऐसी कोई भी सामान्य कलात्मक या सांस्कृतिक गतिविधियां भी काफी सामाजिक-राजनीतिक तनाव का रूप ले लेती है. यहां तक कि सरकार भी कार्रवाई कर सकती है.
अब सील हो चुका ‘संग्रहालय’ जो दरअसल गोलपारा जिले में एक शख्स का घर था. इसमें असम के बंगाली मुसलमानों से जुड़ी कुछ चीजें मसलन लुंगी (जिसे एक परिधान के तौर पर पुरुष इस्तेमाल करते हैं), एक लंगोल या हल, और मछली पकड़ने के टूल को दिखाया गया था. यह घर PMAY-G योजना के तहत बनाया गया था. असम मिया परिषद नामक एक कम-ज्ञात संगठन के अध्यक्ष मोहर अली के नाम पर यह घर था. प्रदर्शनी करने वाले अली ने दावा किया कि यह समुदाय को व्यापक असमिया समाज में और अधिक घुलाने-मिलाने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं था.
गोलपाड़ा में निजी प्रदर्शनी के बाद ही मामला तूल पकड़ने लगा. कुछ दिनों के भीतर घर को सील कर दिया गया. अली और उसके दो सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश रचने के लिए गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, यूएपीए के तहत आरोप लगाया गया.
पुलिस ने कहा है कि भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामिक आतंकवादी संगठनों अंसारुल्लाह बांग्ला टीम (एबीटी) और अल-कायदा से उनके कथित संबंधों के लिए तीनों से पूछताछ की जाएगी.
जैसा कि अभी जांच आगे की जाएगी और आगे क्या होगा इसके बारे में कोई नहीं जानता लेकिन मामले का अपना राजनीतिक संदर्भ भी है. राज्य में बीजेपी की सरकार है. वह राज्य में बंगाली मूल के मुस्लिम समुदाय को लगातार निशाने पर रखती है. वो इसे मूल निवासियों और संस्कृति के लिए खतरा भी बताते हैं.
स्वदेशी बनाम बंगाली मुसलमान : उत्तर-पूर्व में बीजेपी का मजहबी खेल
असम की तीन करोड़ से अधिक आबादी में लगभग 34% मुसलमान हैं. बंगाली मूल का मुस्लिम समुदाय इसमें सबसे बड़ा सब ग्रुप है. असम में, बांग्लादेश से अलग-अलग समय पर प्रवासियों की लहर आती रही है. इसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों बंगाली प्रवासी हैं. ये लोग ही यहां पर आइडेंटिटी पॉलिटिक्स और नागरिकता के मुद्दे को लेकर चर्चा में रहे हैं.
लेकिन अब बीजेपी के ताकतवर होने से बंगाली मुसलमानों को निशाना बनाए जाने की कोशिशें कई गुना बढ़ गई हैं. इस तरह बंगाली मुसलमानों को अलग-थलग करने की कोशिशें लगातार जारी हैं जबकि बंगाली मुसलमान असमी लोगों और संस्कृति में घुलमिलकर रहते हैं और सभी प्रचलित रीति-रिवाजों का पालन दशकों से करते हैं.
दूसरी ओर राज्य का हिंदू बंगाली समुदाय बड़े पैमाने पर बीजेपी का समर्थन करता है और नागरिकता (संशोधन) अधिनियम से लाभान्वित होने की उम्मीद करता है. उसी तरह से बीजेपी बंगाली मूल के मुसलमानों और ‘स्वदेशी’ असमिया मुसलमानों के बीच एक स्पष्ट, सामाजिक-सांस्कृतिक भेद भी करती है.
इसी साल बीजेपी की राज्य सरकार ने आधिकारिक तौर पर पांच मुस्लिम समुदायों को स्वदेशी का दर्जा दिया जिनकी आबादी करीब 40 लाख है.लेकिन बंगाली मूल के मुसलमानों को उनसे अलग रखा.
क्या ‘मिया’ पहचान, कविता , सांस्कृतिक संरक्षण से कोई खतरा है ?
जिन लोगों ने हाल की असम की राजनीति को ठीक से ट्रैक किया है, उनके लिए यह मुद्दा 2020 के विवाद की वापसी की तरह है. ठीक वैसे ही जैसे कि कांग्रेस विधायक शर्मन अली अहमद ने जब गुवाहाटी के एक सांस्कृतिक संस्थान, श्रीमनाता शंकरदेव कलाक्षेत्र के परिसर में ‘मिया संग्रहालय’ बनाने की मांग रखी तो बीजेपी ने जमकर बवाल काटा.
2021 के राज्य चुनावों में जिसमें बीजेपी ने जीत हासिल की, उसने ‘मिया मुसलमानों’ और कविता लिखने जैसे सांस्कृतिक दावों पर लगातार हमला किया. बीजेपी अपने मिया विरोधी रुख को असम की स्वदेशी संस्कृति, भाषा और विरासत की रक्षा के साथ जोड़ती है.
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा जो यकीनन पूर्वोत्तर में बीजेपी के सबसे प्रभावशाली नेता हैं , ने गोलपारा संग्रहालय को असमिया पहचान के लिए एक ‘खतरा’ बताया. उन्होंने चुनौती दी है कि आखिर संग्रहालय के संस्थापक कैसे ‘हल’ जैसे खेती के औजार पर अपना दावा कर सकते हैं. जबकि कई दूसरे समुदाय के लोग भी इसका इस्तेमाल करते हैं.
इसके अलावा, सरमा ने कहा कि यदि संग्रहालय के संस्थापक सरकार को यह नहीं समझा सकते हैं कि प्रदर्शित वस्तुएं एक अलग, विशिष्ट संस्कृति का हिस्सा हैं, तो राज्य उनके खिलाफ कार्रवाई करेगा. सरमा ने एक विशिष्ट ‘मिया’ पहचान के किसी भी दावे को खारिज कर दिया है, जो इस विचार के विपरीत है कि संग्रहालय ‘मिया’ मुसलमानों की संस्कृति और विरासत को संरक्षित करने का एक प्रयास था.
उनकी टिप्पणियों से बड़े सवाल उठते हैं- उदाहरण के लिए, राज्य अपनी संस्कृति को संरक्षित करने के लोगों के प्रयासों में किस तरह से हस्तक्षेप कर सकता है? यहां तक कि अगर कई समुदाय हल का इस्तेमाल करते हैं तो क्या इसका उपयोग करने वाले समुदायों में से किसी एक के अनुभवों के हिस्से के रूप में इसे प्रदर्शित करना अपराध हो सकता है? राज्य और उसकी अथॉरिटी आखिर कहां तक लोगों की उनकी यादों और उनके ऐतिहासिक अनुभवों की समझ पर सवाल उठा सकते हैं?
असम में UAPA कानून की समीक्षा जरूरी
सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व पर बौद्धिक मतभेद एक बात है, लेकिन कविता लिखने या संग्रहालय दिखाने के लिए आपराधिक आरोपों का खतरा बड़ी चिंता की बात है. संग्रहालय की स्थापना के लिए गिरफ्तार किए गए तीन व्यक्तियों पर असम पुलिस ने कड़े यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया है.
अप्रैल के बाद से, असम पुलिस ने एबीटी जैसे बांग्लादेश स्थित चरमपंथी संगठनों से कथित रूप से जुड़े व्यक्तियों पर कार्रवाई की है, एक बांग्लादेशी नागरिक सहित 40 से अधिक व्यक्तियों को गिरफ्तार किया है, लेकिन यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि संग्रहालय शुरू करने वाले तीन लोग उनसे कैसे जुड़े हैं.
कानून अपना काम करेगा और कार्यवाही में वक्त भी लगेगा, लेकिन यहां दो बातें ध्यान देने लायक हैं. भारत में जैसा कि पूर्व चीफ जस्टिस एन वी रमन्ना ने कहा था कि भारत में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की पूरी प्रक्रिया ही खुद में सजा जैसी है. दूसरी बात यह है कि UAPA के दुरुपयोग पर कानूनी एक्सपर्ट और सिविल सोसाइटी दोनों ने कड़ी आलोचना की है ।
सरमा और उनकी सरकार के लिए मिया समुदाय का संग्रहालय बनाना और इसका आतंकवादी संस्था से लिंक होने की आशंका होना बहुत समस्याजनक है. वहीं इस समुदाय के लिए संग्रहालय को बनाना दरअसल असमिया संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली कलाकृतियों का प्रदर्शन है.
एक भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय का अपनी संस्कृति के लिए दावा करना दरअसल यहां पर एक ऐसा टूल बना दिया गया है जिसके जरिए बाहर से आए लोगों का डर मूल निवासियों में बढ़ाकर फैलाया जा सकता है और बहुसंख्यकों की राजनीति को और मजबूत किया जा सकता है. यह तनातनी पहचान की राजनीति से भरे राज्य में राजनीतिक संघर्ष को खौलाते रहने के लिए काफी है.
लेखक :अभिषेक साहा
(यह लेखक के निजी विचार हैं।। इसे एक नजरिए के तौर पर पेश किया गया है)
आभार: दि क्विंट