प्रोफेसर अख्तरुल वासे
हिंसा किसी प्रकार की हो, वह खुद समस्या है, वह किसी समस्या का समाधान तो कतई नहीं है। याद रखिए, हिंसा आपकी कमजोरी को दर्शाती है। हिंसा आपकी शक्ति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि कमजोरी का प्रदर्शन है। हमें यह अच्छे से समझ लेना चाहिए कि धर्म के नाम पर अगर कोई सबसे बड़ा पाप है, तो वह हिंसा है। उदयपुर में जो बर्बरता हुई है, उसे किसी भी नजरिये से जायज नहीं ठहराया जा सकता। आज ऐसी हिंसा या हिंसक प्रवृत्ति का कोई औचित्य नहीं है।
इस देश में यह बार-बार दोहराया गया है कि किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेने और किसी को सजा देने का कोई हक नहीं है। आपको कोई भी परेशानी है, तो न्याय प्रणाली और संविधान का सहारा लीजिए, अपने हाथ किसी अपराध या खून से क्यों रंगते हैं? आज देश में मेरे जैसे ही अधिकांश लोग हैं, जिनका दिलो-दिमाग गम और सवालों से भर गया है। इसमें कोई शक नहीं कि जिसकी हत्या हुई है, उसे पूरे समाज की सहानुभूति मिलनी चाहिए और दोषियों को सख्त से सख्त सजा होनी चाहिए।
यह समय कुछ पीछे या इतिहास में जाने का नहीं है, अगर हम क्रोनोलॉजी देखेंगे, तो यह जायज नहीं होगा। उदयपुर में जो जघन्य अपराध हुआ है, आज उसी की निंदा होनी चाहिए। किसी मुसलमान नेता, आलीम या बुद्धिजीवी ने कोई बहाना नहीं बनाया, सबने इस बर्बरता की मजम्मत की है। हां, पिछले दिनों गलत या हिंसक नारे लगे थे, लेकिन जब समझाया गया, तो न नारे फिर लगे और न हिंसा हुई। दुनिया में ऐसे लोग मौजूद हैं, जो आपकी या मेरी बात को तवज्जो न दें, फिर भी हमें अपनी बात रखने की कोशिश करनी चाहिए। बहस में अभी नहीं उलझना चाहिए। बताने-लिखने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन अभी मंजिल से भटकने का वक्त नहीं है। अपने आसपास अमन-चैन और धार्मिक सद्भाव का ख्याल रखना होगा। यह किसी वर्ग विशेष की ही नहीं, पूरे समाज की जिम्मेदारी है।
ध्यान रहे, हमारे समाज में बहुसंख्य लोग अच्छे हैं, चंद लोगों की गलती की वजह से आप सबको बदनाम नहीं कर सकते। पहले डाकू मुट्ठी भर ही तो आते थे, कुछ समय के लिए सबको बंधक बना लेते थे। ऐसे डाकू आज भी हैं, दोनों या हर तरफ हैं। हम बंधक बनने से बचेंगे, तभी अमन-चैन और तरक्की की ओर बढ़ेंगे। ऐसे लोगों को पहचानना होगा, जो नहीं चाहते थे कि अमन-चैन हो, जो नहीं चाहते कि दुनिया में भारत तेजी से आगे बढ़े, विश्व गुरु बने। देश के अंदर अगर उन्माद होगा, तो यह कैसे आगे बढ़ेगा? इसमें कोई शक ही नहीं कि जो कुछ भी हिन्दुस्तान के हित में है, वही मुसलमान के हित में है।
सारा मामला पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के कथित अपमान किए जाने से शुरू हुआ, लेकिन यहां यह भी तो देखा जाए कि खुद अपमानित होने पर मोहम्मद साहब क्या किया करते थे? उनका अपना मामला यह था कि वह बदले की भावना से कभी कोई काम नहीं करते थे। उन्होंने एक बात हमेशा कही कि सब जीव-जंतु ईश्वर के कुटुंबी हैं, उन्होंने केवल मानव जाति के लिए नहीं कहा, हरेक जीव के लिए कहा। सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया ने तो यहां तक कहा था कि ‘जो बर्दाश्त कर लेता है, वह मार डालता है।’ भारत में सब्र और संयम की बात हमेशा से होती रही है। धार्मिक गुरु और सूफी यही कहते आए हैं। जरूरी है कि इन मिसालों और बयानों से सीखा जाए। अपने मन में आदर भाव लाया जाए। मशहूर सूफी शायर हाफिज का एक शेर है-
हाफिज गर वस्ल ख्वाही सुल्हा कुन ब खासो आम।
बा मुसलमा अल्लाह-अल्लाह बा बृहामन राम-राम।
इसका मतलब यह हुआ कि ऐ हाफिज! अगर तुम लोगों में प्यार और मोहब्बत फैलाना चाहते हो, अगर तुम सबकी भलाई चाहते हो, तो तुम्हारा रवैया यह होना चाहिए कि मुसलमान के साथ अल्लाह-अल्लाह कहो और ब्राह्मण के साथ राम-राम जपो। यह समय किसी सियासत पर टिप्पणी का नहीं है। माफ कीजिएगा, यह वक्त पोस्टमार्टम का नहीं है, इस समय हमें सिर्फ अपने जख्मों पर मरहम रखने की कोशिश करनी चाहिए। भारत एक जिंदा समाज है और जो जिंदा होता है, उसका पोस्टमार्टम नहीं होता। जिगर मुरादाबादी का मशहूर शेर है –
उनका जो फर्ज है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैगाम मोहब्बत है, जहां तक पहुंचे।
अब देश में कानून-व्यवस्था की चुनौती बढ़ गई है, उसे बिना पक्षपात, बिना हस्तक्षेप के काम करना चाहिए। अभी उदयपुर के गम को मैं घुमा-फिराकर कम करना नहीं चाहता। हमें इलाज खोजना होगा। हमें अपने ‘नेवरहुड स्कीम’ को मजबूत करना होगा। हमारी अभी जो स्थिति है, वह है कि हम साथ रहते हैं, लेकिन अलग-अलग हैं, जबकि हमें हर तरह से एक-दूसरे के साथ रहना चाहिए। एक-दूसरे के दुख-दर्द को बांटना चाहिए। एक-दूसरे की खुशियों में शामिल होना चाहिए। यह जब तक नहीं होगा, तब तक आदर्श समाज वजूद में नहीं आ सकता। मुश्किल समय है, लेकिन अपनी व्यवस्था में विश्वास नहीं खोना चाहिए। दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना। आहिस्ता-आहिस्ता सबकी समझ में आएगा और हम एक-दूसरे के करीब आएंगे या आने पर मजबूर होंगे। आज शिक्षित होने से भी ज्यादा जरूरी है जागरूक होना। हमारे पुरखे बहुत शिक्षित नहीं थे, लेकिन वे जागरूक थे। उनके यहां शालीनता थी, सद्भाव था। इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि हमारी शिक्षा पद्धति ने हमें सामाजिक प्राणी न बनाकर आर्थिक प्राणी बना दिया है।
मुझे अच्छी तरह याद है, अलीगढ़ में मेरे दादा हुजूर मुझे छोटी उम्र से ही दलितों और ठाकुरों के यहां शादी के जलसे में ले जाते थे। हम हर आयोजन में शामिल होते थे। ईद-बकरीद की मुबारकबाद देने हमारे घर पंडित भी आते थे। गजब प्रेम, सौहार्द था। बगैर किसी बर्तन को छुए वे दो उंगलियों से इलायची निकालकर खा लेते थे। बर्तनों को नहीं छूते थे, पर हमें गले लगा लेते थे। आज दिक्कत यह है कि हम एक प्लेट में खा तो रहे हैं, पर संवाद करने को तैयार नहीं हैं। हम अकेले में भाइयों की तरह मिलते हैं और भीड़ में कसाइयों की तरह। वाकई, यह भाई वाला भाव लौटाने का समय है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
आभार लाइव हिंदुस्तान