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अयोध्या की कहानी, इन पत्रकारों की ज़ुबानी

RK News by RK News
December 6, 2022
Reading Time: 1 min read
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अयोध्या की कहानी, इन पत्रकारों की ज़ुबानी

छह दिसंबर 1992 को सोलहवीं सदी में बनाई गई बाबरी मस्जिद को कारसेवकों की एक भीड़ ने ढहा दिया. इस घटना के बाद देश भर में सांप्रदायिक तनाव बढ़ा, कई राज्यों में हिंसा हुई और हज़ारों लोग इस हिंसा की बलि चढ़ गए.

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अब पूरे मामले में अदालत का फ़ैसला आ चुका है. अयोध्या में राम मंदिर का काम अब ज़ोर-शोर से चल रहा है. साल 2024 तक मंदिर का काम पूरा हो जाने की उम्मीद जताई जा रही है.

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद बाबरी मस्जिद के लिए अयोध्या शहर से 26 किलोमीटर दूर धन्नीपुर गांव में पांच एकड़ ज़मीन आवंटित की गई थी, जहां मस्जिद का नक्शा स्थानीय प्राधिकरण से पास होना अभी बाक़ी है. मस्जिद के निर्माण का काम इसके बाद शुरू हो पाएगा.

बीबीसी हिंदी के अनुसार इस रिपोर्ट में 30 साल पहले उसी 6 दिसंबर का सिलसिलेवार घटनाक्रम बताया गया है. देश के तीन वरिष्ठ पत्रकार 6 दिसंबर को अयोध्या में मौजूद थे और अपने-अपने संस्थान के लिए काम रिपोर्ट फ़ाइल कर रहे थे.

आपके जीवन में कुछ घटनायें ऐसी होती हैं जिनके आप चश्मदीद गवाह बनते हैं और जो आपके दिल-ओ- दिमाग़ से कभी हटने का नाम नहीं लेती. लगातार ‘हॉन्ट’ करती रहती हैं.

6 दिसंबर, 1992 को दिन दहाड़े अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना मेरे जीवन की एक ऐसी ही घटना है जिसका मैं ख़ामोश तमाशाई था. वो घटना आज तक एक ‘फ़्लैशबैक’ की तरह मेरे मन मस्तिष्क में चलती रहती है.

30 वर्ष पहले जब यह घटना घाटी उस समय मैं हिंदी संडे ऑब्ज़र्वर के लिए काम कर रहा था और बीबीसी के लिए स्ट्रिंगर भी था. साथ ही बीबीसी हिंदी और उर्दू सेवाओं के लिए ‘फ़ोनो’ भी किया करता था.

इसी सिलसिले में 5 दिसंबर को मैं फ़ैज़ाबाद पहुंचा और होटल ‘शान-ए-अवध’ में रुका जो अयोध्या को कवर करने वाले पत्रकारों का पसंदीदा ठिकाना हुआ करता था.

उस शाम यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा समर्थित, विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) अगले दिन अयोध्या में 480 साल पुरानी बाबरी मस्जिद को गिराने वाली है. उसके कार्यकर्ता कई दिनों से वहां विध्वंस का पूर्वाभ्यास कर रहे थे और मस्जिद ढहाने के लिए सभी तरह के साज़ो-सामान से लैस थे.

6 दिसंबर की सुबह, ठीक 10 बजे अयोध्या में संघ परिवार समर्थक कारसेवक बड़ी तादाद में इकठ्ठा होना शुरू हो गए. देश-विदेश के सैंकड़ो पत्रकारों ने भी बाबरी मस्जिद के सामने एक छत पर ख़ुद को तैनात कर लिया था.

कारसेवक धीरे-धीरे मस्जिद के पास जमा होने लगे और सुरक्षा घेरे की कंटीली तारों की तरफ़ बढ़ने लगे. हालाँकि संघ परिवार के कुछ निक्करधारी कार्यकर्ताओं ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की, लेकिन कुछ ही मिनटों में वहां हंगामा हो गया. कारसेवक मस्जिद में घुसना शुरू हो गए. उन्हें अब मस्जिद की दीवारों पर चढ़ते हुए और गुंबदों पर बैठे देखा जा सकता था.

मैं उस समय, बीबीसी के तत्कालीन दक्षिण एशिया प्रमुख मार्क टुली के साथ था. 11 बजकर 20 मिनट पर जैसे ही बाबरी मस्जिद का एक गुंबद गिरा मार्क ने फ़ैज़ाबाद जाने का फ़ैसला किया ताकि वे बाबरी मस्जिद पर हमले की पहली ख़बर दे सकें.

उस समय मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करते थे और लंदन में बीबीसी मुख्यालय से संपर्क का एकमात्र तरीका फ़ैज़ाबाद में सेंट्रल टेलीग्राफ़ ऑफ़िस (सीटीओ) था. मैं और मार्क दोपहर 12 बजे के क़रीब फ़ैज़ाबाद पहुंचे जहां मार्क ने अपनी पहली रिपोर्ट फ़ाइल की.

दोपहर 1 बजे हम अयोध्या वापस आने लगे जहाँ मस्जिद का बड़ा हिस्सा गिराया जा चुका था. हमें शहर के बाहरी इलाके में भीड़ ने रोक लिया. हम फ़ैज़ाबाद वापस गए और पैरा मिलिट्री फ़ोर्स यानी आरएएफ़ और सीआरपीएफ़ के अयोध्या जाने का इंतज़ार करने लगे.

लेकिन उन्मादी भीड़ ने इन अर्ध सैनिक बलों को अयोध्या और फ़ैज़ाबाद के बीच एक रेलवे क्रॉसिंग पर रोक दिया. क्रासिंग बंद कर दी गई और रास्ते में जले हुए टायर डाल दिए गए.

जब अयोध्या पहुंचने के हमारे सारे प्रयास विफल हो गए तो एक पत्रकार मित्र विनोद शुक्ला की मदद से हम क़रीब 2 बजे बाबरी मस्जिद के पीछे तक पहुँचने में कामयाब हुए. लेकिन तब तक वहाँ बाबरी मस्जिद के तीनों गुंबदों को ध्वस्त कर दिया गया था.

जैसे ही हम अपनी कार से उतरे, त्रिशूल और लाठियों से लैस हिंसक कारसेवकों के एक समूह ने हम पर हमला कर दिया. उनमें से ज़्यादातर स्थानीय निवासी थे और मार्क टुली को हमारे साथ देखकर वे बेहद नाराज़ थे.

वे जानते थे कि मार्क बीबीसी के पत्रकार हैं और वे अयोध्या के उनके कवरेज से नाख़ुश थे. जैसे ही भीड़ हमारे ऊपर हमला करने के लिए इकट्ठी हुई, और शायद वो हमें मार भी देती, लेकिन तभी उत्तेजित कारसेवकों में से एक ने सुझाव दिया कि हमें मारने से वहां चल रही विध्वंस की कारसेवा में बाधा आ सकती है और यह बेहतर होगा कि हमें बंद कर दिया जाए और हमें बाद में मारा जाए.

 

हम पांच लोगों को पास की एक इमारत के एक कमरे में बंद कर दिया गया. अगले दो घंटों में भावनाओं का एक सैलाब हमारे ऊपर था क्योंकि एक ओर हम मस्जिद को तोड़े जाने की घटना कवर नहीं कर पा रहे थे और दूसरी ओर मौत का ख़तरा हमारे सिर पर मंडरा रहा था.

किसी तरह अयोध्या में एक महंत के ज़रिये शाम को लगभग 6 बजे हमें मुक्त कराया गया. हमें विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के स्थानीय कार्यालय में ले जाया गया, जहां अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया और भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं सहित प्रमुख वीएचपी नेता विध्वंस का जश्न मना रहे थे.

मस्जिद से हटाई गई ‘राम लला’ की मूर्ति अब विहिप कार्यालय में थी, जहां नेताओं ने ‘रामलला के दर्शन’ के लिए लाइन लगाई हुई थी. विश्व हिंदू परिषद के स्थानीय कार्यालय में हमारे सिर पर “कार सेवकों” वाली पट्टी बंधी गई और हमें उत्तर प्रदेश पुलिस के एक ट्रक में बिठा कर रात 8 बजे फ़ैज़ाबाद के होटल शान-ए-अवध पर उतार दिया गया.

उस समय सरकार नियंत्रित मीडिया, ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन पर सिर्फ़ ये ख़बर दी जा रही थी कि “अयोध्या में विवादास्पद ढाँचे को कुछ नुक़सान पहुंचा है” जबकि असलियत ये थी कि बाबरी मस्जिद को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया था और उसका काफ़ी मलबा कारसेवक स्मृति चिन्ह के रूप में अपने साथ ले गए थे. उसी रात 11 बजे मैंने बीबीसी उर्दू सेवा के समाचार बुलेटिन पर यह ख़बर दी कि बाबरी मस्जिद को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया है.”

“कितना भी समय गुज़र जाए ऐसा लगता है कि वो सब कुछ अभी कल ही हुआ था. कुछ ऐसा ही एहसास हो रहा है जब मैं उस 6 दिसंबर रविवार के दिन के बारे में सोचता हूं. जबकि उसे बीते हुए पूरे 30 साल हो चुके हैं.

 

6 दिसंबर 1992 से एक दिन पहले 5 दिसंबर को विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने बाक़ायदा घोषणा की थी कि 6 दिसंबर को सिर्फ़ प्रतिकात्मक कारसेवा होगी.

ये निर्देश दिए गए कि समस्त कारसेवक, जो कि देश के विभिन्न कोनों से आए थे, वे सुबह-सुबह सरयू के तट से दो मुट्ठी बालू लेकर बाबरी मस्जिद (जिसे विवादित ढांचा कहते थे) के सामने बने एक सीमेंट के चबूतरे पर गिराएंगे और वहां पर जमा साधु-संत बसूलियों (एक तरह का धारदार हथौड़ा) से उस चबूतरे पर टुक-टुक कारसेवा करेंगे.

लेकिन उस एलान के 24 घंटे के भीतर वहां जो हुआ, वो इसके बिल्कुल उल्टा था.

बहुतों की तरह मैं भी अगर वीएचपी की घोषणा के बाद हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता तो वो सब मैं नहीं देख-सुन पाता जो उस दिन मैंने अपने कानों से सुना.

वीएचपी की घोषणा के बाद मैं उसके मीडिया सेंटर की ओर बढ़ा, जहां सभी पत्रकार फ़ोन का इस्तेमाल करने जाते थे. ज़्यादातर एसटीडी कॉल करने के लिए.

वीएचपी के उस मीडिया सेंटर तक पहुँचने के लिए लगभग 12-13 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती थीं. इससे पहले कि मैं आख़िरी सीढ़ी पर अपने पैर रखता, मैंने अंदर से कुछ ऐसी बात सुनी जिसके बाद मैं जहां था वहीं रूक गया.

उस फ़ोन से मेरे सामने जो बात कर रहा था, उसे मैंने ये कहते सुना ” हां-हां 200 -200 बसूलियां, गिटट्, बेलचा, तसला और मोटे वाले खूब लंबे रस्से कल सुबह तक यहां पहुंच जाने चाहिए.”

ये सुन कर मेरा माथा ठनका. जैसे ही मैंने अंदर से आने वाली आवाज़ शांत होते सुनी, मैं दो-तीन सीढ़ी नीचे की तरफ़ उतरा ताक़ि अंदर वाले को कोई शक़ ना हो कि मैं उसकी बात सुन रहा था.

वो जब नीचे उतरा तब मैं ऊपर चढ़ा, लेकिन दोनों ने एक-दूसरे की शक्ल नहीं देखी. ऊपर जाकर मैंने पाया कि वहां कोई और नहीं है. उसके बाद मैंने उसी फ़ोन से समाचार एजेंसी रॉयटर्स के दिल्ली ऑफ़िस को फ़ोन लगाया. मै उस समय इसी अंततराष्ट्रीय एजेंसी के लिए काम करता था.

6 दिसंबर को सुबह मुझे समझ में आया फ़ोन पर हुई उस बातचीत का मतलब का क्या था.

तब हज़ारों की संख्या में कारसेवकों के समूह ने बाबरी मस्जिद की दीवारों पर गैती ( एक तरह का धारदार हथियार) से हमला बोला दिया था. ज़मीन से ऊपर मस्जिद की दीवारें बहुत मोटी थीं, लगभग 2.5 फीट की.

दीवार को पतला करना शायद उनके प्लान का हिस्सा था. इस वजह से उन कारसेवकों ने मोटी दीवार में दोनों तरफ़ से झीरी काटना शुरू कर दिया. ऐसा लग रहा था कि सब अपने काम में प्रशिक्षित हैं.

झीरी काटने के बाद दीवार उस जगह से पतली हो गई. तभी उन्हीं में से कुछ लोग सभी दीवारों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चौड़े-चौड़े छेद करने में जुट गए. और जैसे ही छेद कटे, नीचे कुछ लोग रस्सा लेकर तैयार खड़े थे. उन्होंने रस्सा एक छेद से डाल कर दूसरे छेद से बाहर की ओर खींचा और मस्जिद का ढांचा नीचे की तरफ़ खींच दिया.

बाबरी मस्जिद एक टीले जैसी ऊंची जगह पर बनी हुई थी. रस्सों के दोनों छोर नीचे लटका दिए गए थे जहां खड़े हज़ारों कारसेवकों को कहा गया कि वो उस रस्से को ज़ोर से खींचे. इस तरह पहला गुंबद गिरा.

उसी तारीख़ को दूसरी और तीसरी गुंबद भी इसी तरह ध्वस्त कर दी गई. ये ऐसी घटना थी जिसका किसी को सपने में भी आभास नहीं हो सकता था. सबका मानना था कि मस्जिद पर ऊपर से वार होगा, लेकिन जिसने भी इसको गिराने का प्लान बनाया था, संभवत: उसे मालूम था कि ये काम किसी नई तकनीक से ही मुमकिन है.

सीबीआई की जांच में मुझसे भी पूछताछ हुई और जब मैंने उन्हें वीएचपी मीडिया सेंटर पर सुने वार्तालाप को विस्तार से बताया तब उन लोगों ने उस कॉल को ट्रेस कर लिया और फ़ोन पर बात करने वाले भी पकड़े गए. सीबीआई इसी के सहारे उस नतीजे तक पहुँची कि बाबरी मस्जिद को ढहाना एक सोची-समझी साज़िश थी और तमाम गवाहों के बीच में मैं बन गया था एक अहम गवाह.”

” लोग अब भी मुझे याद दिलाते हैं कि 30 साल पहले छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस का समाचार पहली बार बीबीसी हिन्दी रेडियो पर आपकी आवाज़ में सुना था. अयोध्या के पत्रकार अर्शद अफ़जाल ने तो बाद में मुझे इस समाचार प्रसारण का कैसेट भेंट किया था जो उन्होंने अपने टू इ वन रेडियो सेट पर रिकॉर्ड किया था.

उस दिन मैं मानस भवन धर्मशाला की छत पर था. वहां से मस्जिद बिल्कुल मेरी नाक की सीध में थी. तब उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को गारंटी दी थी कि मस्जिद को कोई क्षति नहीं पहुँचेगी. जज तेज शंकर भी पॉंच दिसंबर की शाम तक सारी व्यवस्था से संतुष्ट थे.

इस बार कल्याण सरकार ने एलान कर रखा था कि यूपी पुलिस ख़ुद तो गोली नहीं ही चलायेगी, केंद्रीय सुरक्षा बलों और सेना का भी इस्तेमाल नहीं करेगी. इससे कारसेवकों का मनोबल सातवें आसमान पर था. उनकी ज़ुबान पर नारा था “अभी नहीं तो कभी नहीं.”

संघ परिवार के आह्वान पर अयोध्या पहुँचे दो लाख से अधिक कारसेवक इस बात से उत्तेजित थे कि उनके नेतृत्व ने एक दिन पहले केवल सरयू जल और बालू लाकर सांकेतिक कारसेवा का निर्णय क्यों किया?

तब अयोध्या की आबोहवा में कई तरह की ख़बरें तैर रही थीं. इससे पहले आसपास की कुछ मज़ारें तोड़ी जा चुकी थीं और अनिष्ट की आशंका से अनेक मुस्लिम परिवार सुरक्षा के लिए बाहर चले गए थे.

तनाव पूर्ण माहौल के बीच सवा 12 बजे से सॉंकेतिक कार सेवा का मूहुर्त था. अनुशासन क़ायम रखने के लिए सिर पर पीली पट्टी पहने स्वयंसेवकों की टोली हाथ में लाठी लेकर तैनात थी.

क़रीब 11 बजे भाजपा के बड़े नेता कारसेवा स्थल पर आये. तभी अचानक अफ़रा-तफ़री शुरू हो गयी. सिर पीरी पीली पट्टी बांधे संघ स्वयंसेवकों ने लाठियों भांजीं.

इस बीच अचानक ज़ोर-ज़ोर से ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाते सैंकड़ों कारसेवकों ने मस्जिद की तरफ़ धावा बोल दिया. ये लोग “गुरिल्ला शैली” में लोहे की मज़बूत बैरिकेडिंग फांदकर गुंबद पर चढ़ गए तो और ज़ोर से ‘जय श्रीराम’, ‘हर हर महादेव’ के नारे लगे.

हमारी दाहिनी तरफ़ मंदिर जन्म स्थान की छत पर बैठे आला अफ़सर किंकर्तव्यविमूढ़ थे. मस्जिद की सुरक्षा में तैनात पुलिस वाले बंदूक़ें लटकाये बाहर चले आये. बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के प्रेक्षक ज़िला जज तेज शंकर पेट ख़राब होने के कारण मौक़े से नदारद थे .

हमारे बाएँ हाथ की तरफ़ राम कथा कुंज की छत पर बने मंच से बीजेपी और संघ के बड़े नेताओं की अपीलों का कारसेवकों पर कोई असर नहीं हुआ. इस बीच कुछ कारसेवकों ने टेलीफ़ोन तार तोड़ दिए और पत्रकारों को फ़ोटो खींचने से मना करने लगे.

इनकी एक टोली मानस भवन की छत पर आ धमकी तो मैंने अपना कैमरा एक महिला पत्रकार के बैग में रख दिया. मैं और मार्क टुली ख़बर प्रसारित करने बाहर- बाहर दर्शन नगर होते हुए गांवों के रास्ते फ़ैज़ाबाद केंद्रीय तार घर पहुँचे.

लखनऊ में कल्याण सिंह सरकार को बर्ख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू हो गया और मस्जिद तोड़ने के लिए अयोध्या में आपराधिक मुक़दमा क़ायम हो गया .

इसके बाद अदालतों में मुक़दमा चलता रहा और फ़ैसला साल 2019 में आया.”

 

आभार: बीबीसी हिंदी 

 

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