कलीमुल हफ़ीज़, (नई दिल्ली)
सरकारें जो ग़रीबी को दूर करने के नाम पर अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी करती हैं वो ग़रीबों को ही मिटाने का मंसूबा बनाने लगती हैं। दिल्ली की सरकार बड़े ज़ोर-शोर से ऐलान करती है कि वह जनता को फ़्री बिजली-पानी दे रही है, उसने कोरोना के ज़माने में दस लाख लोगों को दोनों वक़्त खाना दिया है, कभी यह नहीं सोचा कि उसने दिल्ली की जनता को भिखारी बना दिया है। ग़रीबी ख़त्म करने के बजाय ग़रीबों की संख्या में बढ़ोतरी की है।
दूसरी तरफ़ केन्द्र सरकार, जिसने वादा किया था कि करप्शन को दूर करेगी, काला धन वापस लाएगी, हर साल एक करोड़ नौजवानों को नौकरी देगी, ख़ुशहाल भारत बनाएगी, हरित क्रान्ति लाएगी, आत्म-निर्भरता पैदा करेगी, देश को विश्व गुरु बनाएगी, उसके ये वादे मात्र जुमले साबित हुए। उसे मुस्लिम महिलाओं की फ़िक्र सताई और तलाक़ बिल लाई, उसने शुरू से ही धार्मिक साम्प्रदायिकता का राग अलापा और आख़िरकार राम मन्दिर की नींव का पत्थर रखा, कश्मीरियों की समस्याएँ हल करने के बजाय उनके जिस्म के टुकड़े कर दिये। गाय के नाम पर लिंचिंग को हवा दी, हर वक़्त और हर जगह हिन्दू-मुस्लिम की सियासत की। क्या यही देशभक्ति है?
देश के कई राज्यों में अगले साल चुनाव होने वाले हैं। हर चुनाव को बीजेपी साम्प्रदायिक बना देती है, मेरी राय है कि अपोज़ीशन पार्टियों को एक एक करके जनता के सामने मूल समस्याओं को रखना चाहिये। इस वक़्त महँगाई चरम पर है, यह सही वक़्त है, अगर हमारी समाजी और सियासी पार्टियाँ महँगाई के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएँ, विरोध प्रदर्शन करें, सड़कों पर आएँ, जेल भरो आन्दोलन करें, असहयोग और सत्याग्रह का ऐलान करें।
क्या गाँधी जी का नाम इस्तेमाल करनेवाले गाँधी जी का किरदार भुला चुके हैं? क्या राम मनोहर लोहिया की तस्वीर लगानेवाले उनके समाजी आन्दोलन को भूल चुके हैं? क्या लोकतन्त्र में जनता की समस्याओं को उठाना, संविधान के दायरे में रहकर सरकार की आलोचना करना, उसको तवज्जोह दिलाना भी जुर्म है? ज़बान-बन्दी का यह माहौल हमारी बेहिसी का मुँह बोलता सुबूत है। हमें इस दुनिया से बाहर आना होगा। भूख, ग़रीबी और महँगाई की मार झेल रही इन्सानियत के दर्द को समझना होगा। देश में महँगाई का नाग डस रहा है और भगवा सरकारें धार्मिक साम्प्रदायिकता में लगी हैं।
कभी आबादी कन्ट्रोल के नाम पर बिल लाया जा रहा है, कभी धर्म परिवर्तन के ख़िलाफ़ क़ानून बनाया जा रहा है, नेता तो नेता रहे मुझे हैरत है कि दिल्ली हाई-कोर्ट के क़ाबिल जज साहिबों को भी संविधान में दर्ज यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड ही याद है और नागरिकों के मूल अधिकारों के तहत उनकी मज़हबी आज़ादी याद नहीं? क्या भारत का सबसे बड़ा मसला यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड है, ग़रीबी, जहालत, भुखमरी, लिंचिंग और महँगाई कोई मसला नहीं। सम्मानित अदालत ने यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड का नया शिगूफ़ा छोड़कर सरकार को ‘नया सियासी टूल उपलब्ध’ कर दिया है जिसके ज़रिए जनता की तवज्जोह आसानी से बुनियादी मसलों से हटाई जा सकती है।
न्याय और इन्साफ़ का तक़ाज़ा है कि हमें कोरोना से मरने वाले लगभग दस लाख लोगों के ख़ानदानवालों की समस्याओं को भी देखना चाहिये। जिसमें लगभग 50 लाख लोग बेसहारा हुए हैं। आनेवाली तीसरी लहर की तैयारियों का जायज़ा भी लेना चाहिये। ग़रीबों के ठन्डे चूल्हों पर भी नज़र रखनी चाहिये और उन्हें भीख नहीं उनका हक़ देना चाहिये। एक लोकतान्त्रिक वेलफ़ेयर स्टेट की ज़िम्मेदारी, नागरिकों को ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतें उपलब्ध कराना है। मज़हबी आज़ादी, देश की अखण्डता और एकता की सुरक्षा, भुखमरी का ख़ात्मा और ख़ुशहाल भारत का निर्माण हमारी पहली प्राथमिकता और सरकार की ज़िम्मेदारियों में शामिल है।
मँहगाई यार छूने लगी है अब आसमाँ।
दिल्ली के तख़्त पर किसे बिठा दिया गया॥