सिद्धार्थ शंकर गौतम
श्रीमती द्रौपदी मुर्मू देश की 15वें राष्ट्रपति के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ लेकर ‘महामहिम’ बन चुकी हैं। अपने नामांकन से पूर्व ‘वनवासी’ समाज की श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के कुछ छायाचित्र आये थे जिसमें वे शिव मंदिर में झाड़ू लगा रही हैं, पूजा कर रही हैं और नंदी बाबा के कान में अपनी कामना कह रही हैं। इन छायाचित्रों ने ‘वनवासी’ समाज के हिन्दू होने का सन्देश दिया था। फिर वनवासियों को हिन्दुओं से अलग दिखाने और विलग करने की कोशिशें कौन कर रहा है
यदि आप झारखण्ड जाएं तो राज्य के कोने-कोने में आपको उजला और लाल रंग का झंडा बहुतायत में दिखेगा। यह झंडा झारखंड में लगभग 27 प्रतिशत आबादी वाले वनवासी अथवा जनजातीय समुदाय का पवित्र प्रतीक चिन्ह है जिसे सरना झंडा कहा जाता है। ‘सरना’ वनवासियों के पूजा स्थल को भी कहा जाता है जहाँ वे अपनी मान्यताओं के अनुसार विभिन्न त्योहारों के मौके पर एकत्रित होकर पूजा-अर्चना करते हैं। वस्तुतः वनवासी समाज प्रकृति पूजक है। किंतु पिछले कई दशकों से वनवासी समाज को ‘आदिवासी’ कहकर प्रचारित किया जा रहा है जिसका उद्देश्य है कि वो बाकी हिन्दुओं से अलग हैं। वनवासियों का अब एक वर्ग ‘सरना कोड बिल’ की मांग कर रहा है जिससे वनवासी समाज को अलग धर्म का दर्जा प्राप्त हो जिसे उन्होंने ‘सरना धर्म’ कहा है
अगर हम वनवासियों के नाम पर प्रचारित किये जा रहे सरना धर्म की मांग पर गौर करें तो जिस हिन्दू धर्म से वो अपने आपको अलग बता रहे हैं उसमें जो अनेक पूजा-पद्धतियां हैं, उनमें एक प्रकृति पूजा भी है। वट सावित्री का व्रत, जिसमें बरगद के पेड़ को पूजा जाता है, भारत में वृहद् पैमाने पर मनाया जाता है। जिस प्रकार वनवासी प्रकृति के प्रतीकों को पूजते हैं अधिकांश हिन्दू भी वैसा ही करते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि पूजा-पद्धतियों की विभिन्नता किसी को ‘अहिंदू’ नहीं ठहरा सकती। अतः सरना कोड बिल की मांग न सिर्फ अनुचित ही है बल्कि वनवासी समाज को तोड़ने का षड्यंत्र भी है, जिसके पीछे ईसाई मिशनरियों का भी दिमाग है
इस षड्यंत्र की शुरुआत वनवासियों को आदिवासी कहने से हुई। वनवासी कहने पर वनवासी समाज को आत्मगौरव होता है। लेकिन आदिवासी कहने से वनों से दूर बैठे लोगों का राजनीतिक स्वार्थ भले सिद्ध हो जाता हो लेकिन इससे वनवासियों की अपनी कोई पहचान नहीं बनती है। क्योंकि उनका अस्तित्व जिस वन से जुड़ा हुआ है आदिवासी कहने पर उसका कोई लक्षण प्रकट नहीं होता
लेकिन वनवासियों को हिन्दू समाज से अलग थलग दिखाने की मुहिम को अंतत: अलग धर्म तक ले जाना है इसलिए झारखंड दिशोम पार्टी के नेतृत्व में हो रहे आंदोलनों को देखते हुये झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सरकार बनते ही विधानसभा में ‘सरना आदिवासी धर्म कोड बिल’ को सर्वसम्मति से पारित करवा कर इसे केंद्र सरकार के पास भेज दिया
पिछले दो वर्षों से केंद्र सरकार ने इस बिल पर कोई निर्णय नहीं लिया है। झारखण्ड सरकार वनवासी समाज को बरगलाकर उन्हें केंद्र सरकार के विरुद्ध कर रही है जबकि केंद्र सरकार इस मांग को गैर-जरूरी बता रही है। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से एक वर्ग का मानना है कि अब उनकी अलग धर्म की मांग को सुना जायेगा तथा भविष्य में वनवासियों का अलग से ‘सरना धर्म’ होगा
ऐसा लगता है कि वनवासियों की धार्मिक स्वतंत्रता तथा सांस्कृतिक विरासत को बचाने के नाम पर यह सारी राजनीति मात्र भारतीय समाज की सांस्कृतिक एकता को निर्बल करने के लिये हो रही है, ताकि टुकड़े टुकड़े गैंग अपने कुत्सित प्रयासों में सफल हो सके। ऐसी कई प्रथाएं हैं जिन्हें वनवासी समाज तो मानता है किन्तु वे कानूनन स्वीकार्य नहीं हैं, जिनमें बहुविवाह प्रमुख है। इसके इतर संपत्ति हस्तांतरण, उत्तराधिकार आदि जैसे नियम भी अलग हैं। ऐसा प्रचारित किया जाता है कि सरना धर्म को मान्यता प्राप्त होने से इन्हें कानूनी संरक्षण प्राप्त होगा किन्तु इससे कोई अंतर नहीं आने वाला। भारतीय संविधान वनवासी समाज की मान्यताओं के मान की रक्षा करता रहा है और आगे भी करता रहेगा
ज्ञात हो कि देश में 700 से अधिक जनजातियाँ हैं। इन जनजातियों के विकास के लिए संविधान निर्माताओं ने आरक्षण सहित अन्य सुविधाओं का प्रावधान किया था। आज इन सुविधाओं का लाभ जनजातियों की आड़ में वे लोग उठा रहे हैं जो अपनी जाति छोडक़र ईसाई या अन्य धर्म में परिवर्तित हो चुके हैं। ऐसा करके धर्मांतरित लोग मूल जनजातियों का अधिकार छीन रहे हैं। वनवासी समाज के हितैषी सांसदों द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गाँधी को 235 सांसदों का हस्ताक्षर सहित ज्ञापन देकर इस सन्दर्भ में कानून बनाए जाने के लिए संसद में भी प्रयास किया गया था। 1970 में डॉ. कार्तिक उरांव ने लोकसभा में 348 सांसदों के हस्ताक्षर से इस विसंगति के विरोध में प्रस्ताव रखा था। यदि डॉ. कार्तिक उरांव का यह प्रस्ताव मान लिया जाता तो कन्वर्शन माफिया स्वत: ही समाप्त हो जाता। लेकिन यह समस्या आज भी जस की तस बनी हुई है। वनवासी समाज के कुछ लोग राजनीतिक लाभ तथा धन के लालच में आकर इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लेते हैं और बाद में दोहरा लाभ लेकर वनवासी समाज का ही शोषण करते हैं
पिछले कई माह से मध्य प्रदेश में जनजाति सुरक्षा मंच के तत्वाधान में बड़ी-बड़ी रैलियाँ आयोजित हो रही हैं जिनमें सरकार से ‘डीलिस्टिंग’ की मांग की जा रही है अर्थात ऐसे वनवासी जो मतांतरित हो गये हैं, उन्हें वनवासी समाज से अलग किया जाये ताकि वंचित, कमजोर तथा वास्तविक वनवासी समाज को उसका संवैधानिक हक प्राप्त हो सके
संविधान के अनुच्छेद 341 एवं 342 में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अखिल भारतीय व राज्यवार आरक्षण तथा सरंक्षण की व्यवस्था की गई थी। सूची जारी करते समय धर्मांतरित ईसाई और मुस्लिमों को अनुसूचित जाति में तो शामिल नहीं किया गया किन्तु अनुसूचित जनजातियों से मतांतरित होने वालों को इस सूची से बाहर नहीं किया गया जो आज बड़ी विसंगति बन गया है। इस कारण हमारे समाज में आरक्षण की मूल भावना व आत्मा नष्ट हो रही है। देश के एक बड़े वनवासी समुदाय की भावनाओं को भड़काकर देश को अस्थिर करने का जो प्रयत्न किया जा रहा है, उससे वनवासी समाज को बचाने की आवश्यकता है। इस चुनौतीपूर्ण कार्य में वनवासी समाज का गौरव बन चुकी राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू की भूमिका निर्णायक सिद्ध हो सकती है।
यह लेखक के निजी विचार हैं
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