विनायक दामोदर सावरकर का जीवन द्वंद्व से भरा है। वर्तमान में उन्हें हिंदू दक्षिणपंथ के हीरो के रूप में याद किया जाता है। हिंदुत्व की उनकी परिभाषा आज भी एक वर्ग के बीच स्वीकार्य है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि अपने स्पष्ट साम्प्रदायिक झुकाव के बावजूद वह कभी हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार हुआ करते थे।I
कार्ल मार्क्स की तरह ही सावरकर भी 1857 के सैनिक विद्रोह को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम मानते थे। युवा सावरकर ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामकर किताब की भूमिका में लिखते हैं, ”मुसलमानों के प्रति घृणा का भाव शिवाजी के समय उचित था लेकिन अगर ऐसी भावना का आज सिर्फ इसलिए पोषण किया जाएगा कि वह तब हिंदुओं की प्रबल भावना थी, तो यह अन्यायपूर्ण और मूर्खतापूर्ण होगा।
1944 में यही सवारकर अमेरिकी युद्ध पत्रकार टॉम ट्रेनर के साक्षात्कार में कहते हैं, वह भारत में अल्पसंख्यकों के साथ उसी तरह पेश आएंगे, जैसे अमेरिका में ब्लैक के साथ आते हैं।
अंग्रेजों के खिलाफ दोनों धर्म के लोगों को मिलकर लड़ने के लिए प्रोत्साहित करने वाले सावरकर कालांतर में खुद स्वतंत्रता संग्राम से विमुख दिखे। अंडमान की सेल्यूलर जेल में सजा काटते हुए अंग्रेजी शासन को लिखे दया याचिका में वह कहते हैं, “सरकार अगर कृपा और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादारी का कट्टर समर्थक रहूँगा जो उस प्रगति के लिए पहली शर्त है”
सावरकर ने किसे कहा देशद्रोही?
1857 के सैनिक विद्रोह को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के रूप में स्थापित करने में सावरकर की अहम भूमिका है। ब्रिटिश पुस्तकालयों से किताब और रिपोर्ट जुटाकर उन्होंने ब्रितानी नजरिए के समक्ष एक वैकल्पिक दृष्टि पेश की थी। सावरकर अपनी किताब में अंग्रेजों का साथ देने वालों को देशद्रोही बताते हैं। अशोक कुमार पाण्डेय अपनी किताब ‘सावरकर काला पानी और उसके बाद’ में उदाहरण के साथ सावरकर के इस द्वंद्व को रेखांकित करते हैं।
जहां स्वयं बुद्ध हार गए, वहां अंबेडकर किस झाड़ की पत्ती हैं- जब बाबा साहब के लिए बोले थे सावरकर
सावरकर नागपुर राजघराने की बांका बाई को 1857 में अपने पुत्रों को विद्रोह में हिस्सा लेने से रोकने के लिए धिक्कारते हुए कहते हैं, ‘कुल कलंकिनी बांका, जा पड़ नरक में- यदि वहां भी देशद्रोहियों को प्रवेश होतो’
खुद भारत छोड़ो आन्दोलन से रहे अलग
जो सवरकर सैनिक विद्रोह में शामिल न होने वालों को देशद्रोही कहते थे, वह खुद 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी शामिल नहीं हुए थे। दरअसल माफी मांगकर अंडमान की सेल्यूलर जेल से बाहर आने के बाद सावरकर स्वतंत्रता संग्राम से लगभग दूर ही रहे।
8 अगस्त 1942 की रात भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरुआत होते ही, ब्रिटिश सरकार ने गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद समेत कांग्रेस के लगभग सभी शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। जो बचे, उन्हें भूमिगत होना पड़ा। कांग्रेस कमेटी को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। लेकिन सावरकर आजाद थे और उनकी हिंदू महासभा अंग्रेजों की सेवा में सक्रिय थी।
जब गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, तो सावरकर ने हिंदू महासभा के सभी सदस्यों से इसका बहिष्कार करने का आग्रह किया। उन्होंने हिंदू सभाओं को निर्देश दिया जो “नगर पालिकाओं, स्थानीय निकायों, विधायिकाओं, या सेना में सेवारत हैं… वह अपने पदों पर बने रहें”
इतना द्वितीय विश्व युद्ध में झोंके जाने के लिए हिंदू महासभा बड़े स्तर पर युद्ध परिषदों का गठन कर सैनिकों की बहाली कर रहा था। सावरकर ने अपने नेतृत्व में बड़े पैमाने पर ब्रिटिश सेना में भर्तियां करवाईं, जिनमें गांधी हत्या में शामिल गोपाल गोडसे और नारायण आप्टे भी शामिल थे।
द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों को झोंके जाने और पूर्ण आजादी का वादा न मिलने से नाराज कांग्रेस जब विभिन्न प्रांतों में अपनी सरकार गिरा रही थी। तब सावरकर की अगुआई वाली हिंदू महासभा सिंध, उत्तर पश्चिमी प्रांत और बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ सरकार बना और चला रही थी।
अपने इस कृत्य को सही ठहराते हुए सावरकर कहते हैं, ”महासभा भली भांति अवगत है कि व्यावहारिक राजनीति में हमें आगे बढ़ने हेतु किंचित् समझौते भी करने होंगे। उदाहरण के तौर पर, सिन्ध में आमंत्रण मिलने पर महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकार चलाई। बंगाल का मामला सर्वविदित है।